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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३१७ वस्तु अक्षजे प्रतिभासे प्रतिभाति, उताऽस्थिरम्,' इति संदेह एव युक्तः । अपि च स्थिरमूर्तिर्यद्यसौ भावः कथमस्थिरतया दृक्प्रभवे दर्शनेऽवभासेत ? न हि शुक्लं वस्तु पीततया परिस्फुटेऽदुष्टाक्षजे प्रत्यये प्रतिभाति, तयोः परस्परविरोधात् । एवं न स्थिरमस्थिरतया परिस्फुटदर्शने प्रतिभासेत(s)तोऽस्थिरतया प्रतिभासनादध्यक्षगृहीत एव क्षणभेदो भावानाम् । न चापेक्षितहेतुसन्निधिर्भावानां विनाशः तदभावे न भवतीति 'स्थायिनो भावा' इति वक्तुं युक्तम् - यतो न नाशहेतुस्तेषां सम्भवति अदर्शनस्यैवाभावरूपत्वात् । आह च 'अनुपलब्धिरसत्ता' [ ] इति । प्रतिभासमाने च पुरो व्यवस्थिते वस्तुनि पूर्वापररूपयोरदर्शनमस्तीति कथं ध्वंसस्य मुद्रादिहेतुत्वम् मुद्राद्यन्तरेणाप्यदर्शनस्य सम्भवात् । न च तदानीमदर्शनमेव नाभाव इति, मुद्रव्यापारानन्तरं तु घटादेरभावः नाऽदर्शनमात्रम् । यतः कोयमभावो नाम - अस्तमयः अर्थक्रियाबिरहो वा ? यद्यस्तमयः तदा पर्यायभेद उद्भव दिखता है और कहीं पर नहीं दिखता - इस लिये वैसा संदेह अव्युत्पन्न को होना सहज है । निष्कर्ष यही है कि दर्शन पूर्वापरक्षण से अस्पृष्ट क्षणमात्र को विषय करता है इस लिये सकल वस्तु क्षणान्तरस्थिति से मुक्त है अर्थात् पदार्थमात्र का क्षणभेद सिद्ध होता है । आशंका : क्षणभेद सिद्धि को अब भी अवकाश नहीं है क्योंकि ऐसा भी पदार्थ होता है जो विनाशक सामग्री से बहुत दूर होता है और प्रत्यक्ष की पहुँच से बाहर होता है । कैसे यह देखिये - हालाँ कि प्रत्यक्ष पूर्वापरकालावगाही नहीं होता, किन्तु इसी लिये तो, यानी प्रत्यक्ष में पूर्वापरक्षणग्रहणसामर्थ्य न होने से ही उन क्षणो में वस्तु का अभेद भी ग्रहण नहीं हो सकता । अगर इतने मात्र से कह दिया जाय कि क्षणाभेद का अभाव सिद्ध हो गया तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि किसी वस्तु का ग्रहण न होने मात्र से उस का अभाव सिद्ध नहीं होता । अन्यथा बहुत चीजों (हृदयादि) का ग्रहण नहीं होने से उन का भी अभाव मान लेना पडेगा । ___उत्तर : यह वक्तव्य गलत है। कारण, वस्तु की प्रतीति सदा क्षणमात्रानुविद्ध ही होती है इस लिये वहाँ संदेह हो सकता है तो ऐसा ही हो सकता है कि 'क्या यहाँ स्थिर वस्तु अस्थिररूप से प्रत्यक्ष में भासित होती है या अस्थिर वस्तु ही उस रूप से भासित होती है ?' इस संदेह का निराकरण भी सोचने पर हो जाता है - भाव की मूर्ति यदि स्थिर है तो वह नेत्रजन्य प्रत्यक्ष में अस्थिर रूप से किस तरह प्रतिबिम्बित हो सकती है ? स्पष्ट एवं निर्दोषनेत्रजन्य प्रत्यक्ष में कभी भी सफेद चीज का पीलेरूप से प्रतिभास नहीं होता, क्योंकि श्वेत-पीत रूपों में परस्पर-परिहार स्वरूप विरोध है । परिणाम, वस्तु यदि स्थिर हो तो अस्थिररूप से उस का स्पष्ट प्रत्यक्ष में प्रतिभास शक्य ही नहीं है क्योंकि स्थिर-अस्थिर परस्परविरुद्ध है । दूसरी ओर वस्तु का अस्थिररूप से (पूर्वापरक्षणमुक्त क्षणमात्र का) प्रतिभास प्रसिद्ध है, अत एव पदार्थों का क्षणभेद सिद्ध हो जाता है । ★नाशहेतुविरह में स्थायित्व-सिद्धि की आशा व्यर्थ ★ यदि यह कहा जाय - भावों का विनाश हेतुसंनिधिसापेक्ष है, जब तक हेतु संनिहित नहीं होते तब तक उस का ध्वंस नहीं होता अत एव 'भाव स्थायी हैं' यह कहा जा सकता है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'विनाश हेतुसापेक्ष है' ऐसी बात असंगत है, वास्तव में तो भाव का अदर्शन ही उस का नाशस्वरूप अभाव है । कहा गया है कि 'अनुपलब्धि यानी असत्ता' । जो वर्तमान में संमुखस्थित भाव दिखाई देता है उस में पूर्व या भावि रूप का दर्शन नहीं होता । फिर पूर्व भाव के अभाव को यानी ध्वंस को मोगरआदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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