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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
न चाध्यक्षं पूर्वापरसमयसमन्वयमर्थसत्त्वमविषयत्वादधिगन्तुमक्षममिति न तद् उद्भासयीति संदेह एव युक्तः नासत्त्वमिति वक्तव्यम् यत उभयावलम्बी संदेह उभयदर्शने सत्युपजायते यथा ऊर्ध्वतावगमात् पूर्वदृष्टौ एव स्थाणु- पुरुषौ परामृशन् संदेहः प्रतिभाति । न च कालान्तरस्थायित्वं कदाचिदप्यवगतम्, तत् कुतस्तत्र संदेहः ? यः पुनर्भवतां 'कालान्तरस्थायि' इति संदेहः स सदृशापरापरार्थक्रियाकारिपदार्थान् संस्पृशति, 'ते च तथा क्वचिद् दृष्टाः क्वचिद् न' इत्युभयावलम्बी संदेहो युक्तस्तत्र इति यत् प्रतिभाति तत् सकलं क्षणान्तरस्थितिविरहितमिति पदार्थानां सिद्धः क्षणभेदः ।
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अथ ध्वंसहेतुसंनिधिविकलोऽध्यक्षगोचरातिक्रान्तोऽपि पदार्थस्तिष्ठति इति कथं क्षणभेदः ? तथाहि यद्यप्यध्यक्षोदयो पूर्वापरकालसंस्पर्शी तथापि तस्यैव "तत्राऽसामर्थ्याद् न क्षणाऽभेदग्राहित्वम्, तदभावस्तु नाभ्युपगंतुं युक्तः, न हि ग्रहणाभावादेव अर्था न सन्ति - अतिप्रसंगात् । असदेतत्, यतः 'स्थिरमस्थिरतया ACT ही कालान्तर में अनुमान से बोध होता है ।
‘भाव कालान्तरस्थायी है' ऐसा बोध कभी प्रत्यक्षानुभव में हुआ नहीं है । अरे, वर्त्तमानकालीनत्व का प्रकाशक इन्द्रियजन्य बोध ( = प्रत्यक्ष ) यदि भाव की कालान्तरस्थिति को भी प्रकाशित करता है - ऐसा आप मानते हैं तब तो प्रत्यक्ष से ही अभेद ज्ञात हो जायेगा, फिर अनुमान की जरूर क्या ? यदि कहें कि 'इस काल में प्रत्यक्ष से कालान्तरस्थिति का ग्रहण नहीं हो सकता किन्तु कालान्तरभावि प्रत्यक्ष से तो हो सकता है न !' तो यह भी अनुचित है, क्योंकि उत्तरकालभावि दर्शन उस कालान्तरभावि पदार्थ को जब ग्रहण करता है तब वह पदार्थ वर्त्तमानक्षणभावी ही होता है कालान्तरभावी नहीं अतः उस काल में भी प्रत्यक्ष वर्त्तमानक्षण के ग्रहण में ही सक्षम होता है न कि कालान्तर भावि अर्थ के । तो अब बोलिये कि कालान्तरभावि अध्यक्ष भी कैसे अभेदग्राही होगा ?! वास्तव में तो वर्त्तमान प्रत्यक्ष से जिस वस्तु का भान होता है उस वस्तु के अतीतादिकाल के सम्बन्ध का ग्रहण हुये विना उस के अभेद का बोध असम्भव है ।
★ कालान्तरस्थायित्व में संदेहविषयता भी अशक्य ★
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आशंका : पूर्वापरक्षणों में समन्वित अर्थसत्ता अध्यक्ष का विषय न होने के कारण अध्यक्ष उस ग्रह में सक्षम नहीं है इस लिये उस से उस का उद्भासन नहीं होता, किन्तु इतने मात्र से पूर्वापर क्षणों में अर्थसत्ता का अभाव निश्चित न होने से संदेह तो हो सकता है ।
उत्तर : यह वक्तव्य ठीक नहीं है । कारण, संदेह पक्ष विपक्षोभयावलम्बी होता है और वह भी उन दोनों का पूर्व में अलग अलग दर्शन हो चुका रहा हो तभी होता है - उदा० पुरुष और ठूंठ कभी पहले देखे हो, बाद में दूर से कभी उच्चता का दर्शन होने पर यह संदेह होता है कि वह 'पुरुष है या ठूंठ है ?!' प्रस्तुत में 'पूर्वापरकालस्थायिता है या नहीं' अथवा 'वस्तु पूर्वापरकालस्थायि है या पूर्वापरकालअस्थायि है' ऐसा संदेह संभवित नहीं है क्योंकि कालान्तरस्थायित्व पहले कभी भी ज्ञात नहीं है तो फिर संदेह कैसे होगा ? हाँ, आप को जो कालान्तरस्थापिता का संदेह होता है वह तो समान रूप-रंग-आकार अर्थक्रिया वाले अपर अपर पदार्थ को विषय करने वाला होता है । मतलब यह है कि कभी कभी कहीं पर समान अपर अपर पदार्थों का निरंतर * 'तत्रापि सा०' इति पूर्वमुद्रिते, अत्र तु लिम्बडी - आदर्शानुसारी पाठः ।
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