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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यमभेददृशमुपजनयति । - तदप्यसत् यतः स्मृतिसहायमपि लोचनं पुरः सन्निहित एव घटादिभेदे तत्क्रोडीकृतसद्रूपत्वे च प्रतिपत्तिं जनयितुमलम् न पूर्वदर्शनप्रतिपन्ने भेदान्तरे, तस्याऽसंनिधानेनाऽतद्विषयत्वात् गन्धस्मृतिसहकारिलोचनवत् 'सुरभि द्रव्यम्' इति प्रतिपत्तिं गन्धवद्र्व्ये । तन्न सद्रूपत्वप्रतित्तिरत्र भेदे स्फुटवपुः प्रतिपत्तिमभिसन्धत्ते ।
अथेन्द्रियवृत्तिः न स्मरणसमवायिनी करणत्वात् इति नासौ प्रतिसन्धानविधायिनी, पुरुषस्तु कर्तृतया स्मृतिसमवायी तेन चक्षुषा परिगतेऽर्थे तद्दर्शितपूर्वभेदात्मसात्कृतसद्रूपत्वं संधास्यति । तदप्यसत्, यतः सोऽपि न स्वतन्त्रतयैकत्वं प्रतिपत्तुं समर्थः किन्तु दर्शनसव्यपेक्षः, दर्शनं च न प्रत्यक्षं पूर्वापरकालभाव्यपरापरदेशव्यवस्थितघट-पटादिभेदक्रोडीकृतसन्मात्राऽभेदग्रहणमिति न तदुपायतः आत्माप्यभेदप्रतिपत्तिसमर्थः । यदि पुनः दर्शननिरपेक्ष एवात्मा अभेदग्राहकः स्यात् तदा स्वाप-मद-मूर्छाद्यवस्थायामपि तस्य सद्भावाभ्युपग- मादभेदप्रतिपत्तिर्भवेत्, न च स्मरणसव्यपेक्षोऽसौ तद्ग्राहकः स्मरणस्य बहिरर्थे प्रातो वह संनिहितवस्तुग्राही होता है अत: उस में स्फुरित होने वाला सद्रूपत्व अन्य अन्य देश के घट-वस्रादि में भी अनुयायि = अनुगत है, एक है, यह कैसे सिद्ध हो सकता है ? तात्पर्य, प्रत्यभिज्ञा को प्रत्यक्षरूप नहीं मान सकते । यदि कोई बीच में पूछ ले कि - "इन्द्रियव्यापार से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, प्रत्यभिज्ञा भी उसी से उत्पन्न होती है तो उसे प्रत्यक्षरूप क्यों न माना जाय ? भेदवादि (यानी बौद्धवादी) भी कल्पनामुक्तमूर्त्तिवाले भेदप्रकाशक विशद दर्शन को इन्द्रियव्यापारजन्य होने के कारण ही प्रत्यक्षरूप मानते हैं न ! तो प्रत्यभिज्ञा में भी समानरूप से इन्द्रियव्यापारजन्यत्व के जरिये प्रत्यक्षरूपता क्यों नहीं' ? - तो कहना होगा कि यह प्रश्न गलत है, यदि वास्तव में दूसरे देश के भेद में पूर्वदृष्ट भेद के अन्वयी सद्रूपत्व को विषय करने वाली प्रतीति का शरीर सिर्फ इन्द्रियव्यापार से ही जन्मा होता तो प्रथम देशगत भेद का दर्शन भी इन्द्रिय व्यापार से ही जनित है तो उसी काल में अन्य देशगत भेदों में अन्वयि सद्रूपत्व का बोध हो जाना चाहिये। यदि कहें कि - "प्रथम देशगत भेद के अनुभवकाल में उत्तरकाल में देखे जाने वाले भेदों की स्मृति न होने से उन के एकत्व का भान प्रथमदेशगत भेद के दर्शनकाल में नहीं होता। तात्पर्य, जब दूसरी बार अन्य देशगत भेद का दर्शन जन्म लेता है तब पूर्वदर्शन से उत्पन्न संस्कारों के जागृत होने पर उत्पन्न होने वाली पूर्वदृष्ट भेद की स्मृति के सहयोग से, यहाँ इन्द्रिय के द्वारा अभेददर्शन का जन्म होता है।" - तो यह विधान भी गलत है, चूँकि स्मृति का सहयोग मिलने पर भी इन्द्रिय अपनी मर्यादा का भंग नहीं करेगी, अत: लोचन तो सन्मुख रहे हुए घटादि भेद और उस में अन्तर्गत सद्रूपत्व का ही दर्शन उत्पन्न करने में समर्थ हो सकता है, पूर्व दर्शन में लक्षित होने वाले अन्य भेद का बोध वर्तमान में उत्पन्न करने में इन्द्रियसामर्थ्य नहीं होता । कारण, उस काल में पूर्वदृष्ट भेद उस का संनिहित न होने से उस का विषय बनने का सौभाग्य उस में नहीं है । सुगंधि द्रव्य के उदाहरण से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है - सुगन्ध की स्मृति का सहयोग रहने पर भी दूर से चन्दनकाष्ठद्रव्य दृष्टिसमक्ष आ जाय तो लोचन से 'सुगन्धि द्रव्य' ऐसा प्रत्यक्ष नहीं होता । अर्थात् उस द्रव्य के साथ साथ सुगन्ध का भी (जैसा नासिका से होता है वैसा) प्रत्यक्षानुभव शक्य नहीं है। सारांश, प्रत्यभिज्ञा को प्रत्यक्षरूप मानने पर अथवा स्मृति सहयुक्त प्रत्यक्षरूप मानने पर भी अन्यदेशगत भेद के अनुभवगोचर होते हुये पूर्व भेदान्वयि सद्रूपत्व का भान साथ साथ होने की बात अनुभवसिद्ध नहीं है।
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