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द्वितीयः खण्डः - का० - ३
माण्यानुपपत्तेः । गृहीतार्थाध्यवसायि हि स्मरणम् न चाभेदः पूर्वापराध्यक्षाधिगतः इति न स्मरणस्यापि तत्र प्रवृत्तिर्युक्तिमती । न च प्रत्यभिज्ञानसव्यपेक्षोऽसौ तत्र प्रवर्त्तते इति कल्पना संगता, प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य देशभिन्नघट-पटादिपरिष्वक्कसद्रूपाभेदावगमहेतुत्वेन निषिद्धत्वात् [३११-५] न चात्मनोऽपि व्यापित्वं सिद्धम् तस्य पूर्वं निषिद्धत्वात् [ प्रथमखंडे ] । तन देशाऽभेदादभेदः सन्मात्रस्य कुतश्चित् प्रमाणादवगन्तुं शक्यः ।
नापि पूर्वापरकालसम्बन्धित्वं सन्मात्रस्याभेदः प्रत्यक्षविषयः । तथाहि - प्रत्यक्षं पूर्वापरविविक्तवर्त्तमानमात्रपरिच्छेदस्वभावं न कालान्तरपरिगतिमुद्योतयितुं प्रभुरिति न तदवसेयोऽभेदः । अध्यक्षमात्रपरिगतमेव वस्तुरूपं गृह्यते इति तदेवास्तु । तथाहि - उपलम्भः सत्तोच्यते उपलब्धि सर्वाक्षान्वया वर्त्तमानमेव रूपमुद्भासयति अक्षस्य वर्त्तमान एव व्यापारोपलम्भात् तदनुसारिणी चाध्यक्षप्रतीतिरक्षगोचरमेव पदार्थस्वरूपमुद्भासयितुं प्रभुरिति दर्शनविषयो वर्त्तमानमात्रं सदिति स्थितम् । अथापि स्यात् यद्यप्यक्षानुसारिणी दर्शनोद्भेदे साम्प्रतिकरूपप्रतिभासस्तथापि कथमध्यक्षावसेयः पूर्वापरक्षणभेदः ? मध्य★ अभेदानुसन्धान के लिये आत्मा असमर्थ★
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पूर्वपक्षी : इन्द्रिय का व्यापार करण है, करण फलोत्पादक होता है किन्तु फलाश्रय = फलसमवायि नहीं होता, अतः वह स्मरण का भी समवायी नहीं होता । यही कारण है कि वह पूर्वापर भेदों के एकत्व का प्रतिसन्धान कर नहीं पाता । किन्तु पुरुष = आत्मा तो स्वयं कर्त्तारूप में स्मरण का उपादान कारण होने से समवायि है, पहले आत्मा में एक भेद का दर्शन हुआ और बाद में दूसरे भेद के दर्शन काल में पूर्वदृष्टभेद का स्मरण हुआ तब आत्मा दर्शनगृहीत अर्थ और पूर्वदृष्ट अर्थ के अभेद का यानी अन्वयि सद्रूपत्व का अनुसंधान कर सकेगा ।
उत्तरपक्षी : यह वक्तव्य गलत है । कारण, आत्मा भी स्वतन्त्ररूप से एकत्व = अभेद का अनुसंधान करने में सक्षम नहीं है, करेगा तो भी दर्शन के सहयोग से ही करेगा । वह दर्शन ऐसा प्रत्यक्ष नहीं है कि जो पूर्वदेशस्थित और अपरदेशस्थित घट - वस्त्रादि भावों में अन्तर्गत सन्मात्ररूप से अभेद का ग्रहण कर सके, क्योंकि पूर्वदृष्ट पदार्थ उस का विषय ही नहीं है । फलतः दर्शन के सहयोग से भी आत्मा अभेदानुसंधान के लिये सक्षम नहीं हो सकता ।
यदि दर्शन के सहयोग के विना स्वतन्त्ररूप से ही आत्मा अभेदग्रहण के लिये सक्षम हो जाय तब तो निद्रा-नशा और बेहोशी की दशा में भी आत्मा मौजूद रहने से अभेद का अनुसंधान जारी रहना चाहिये । स्मरण के सहयोग से भी वह अभेदग्राही नहीं हो सकता, क्योंकि स्मरण बाह्यार्थ के विषय में प्रमाण नहीं माना जाता । स्मरण से कभी बाह्यार्थ की सिद्धि नहीं होती । स्मरण तो पूर्वदृष्ट अर्थ का अध्यवसायि होता है । अभेद तो न पूर्वदर्शन से दृष्ट है न उत्तरदर्शन से, अतः उस के ग्रहण के लिये स्मरण की प्रवृत्ति युक्तिबाह्य है । 'प्रत्यभिज्ञा के सहयोग से आत्मा अभेदग्राही हो सके' ऐसी सम्भावना भी संगत नहीं है। कारण, प्रत्यभिज्ञाज्ञान में विभिन्नदेशवर्त्ती घट-वस्त्रादि अन्तर्गत सद्रूपतात्मक अभेदज्ञान की हेतुता का अभी निषेध किया हुआ है। यदि ऐसा कहें कि . " आत्मा व्यापक होने से एकदेशगत भेद और अन्यदेशगत भेद दोनों का एक साथ दर्शन तो यह भी गलत कल्पना है क्योंकि पहले (खंड में) ही उस की व्यापकता निष्कर्ष, देश- अभेद से सन्मात्र भावों का अभेद किसी भी प्रमाण
कर के अभेदानुसंधान कर सकेगा ' का निषेध किया जा चुका है
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