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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३११ भेदान्तरमुपलभ्यते तदा तद्गतं सद्रूपत्वमाभातीत्यभेदप्रतिपत्तिः पश्चाद् भवतीति - एतदप्ययुक्तम्, यतो भेदान्तप्रतिभासेऽपि तत्क्रोडीकृतमेव सद्रपत्वमिति न पूर्वभेदसंस्पर्शितया तस्याधिगतिः पूर्वभेदस्याऽसंनिहिततयाऽप्रतिभासने तत्परिष्वक्तवपुषः सद्रूपस्यापि दर्शनातिक्रान्तत्वात् कथमपरापरदेशभेदसमन्वयिसद्रूपत्वावगमः सम्भवी ? अथ प्रत्यभिज्ञानादन्वयि सद्रूपत्वं भिन्नदेशभेदेषु प्रतीयते - तदा वक्तव्यम् केयं प्रत्यभिज्ञा ? यदि प्रत्यक्षम् तत् कुतस्तदवसेयं सद्रूपत्वमपरापरदेशघट-पटादिष्वेकं सिध्यति ? अथाक्षव्यापारादुपजायमाना प्रत्यभिज्ञा कथं न प्रत्यक्षम् ? भेदग्राहिणो विकल्पव्यतिक्रान्तमूर्तेर्विशददर्शनस्याप्यक्षप्रभवत्वेनैवाऽध्यक्षत्वं भेदवादिभिरप्यभ्युपगम्यते तदत्रापि समानम् । असदेतत् - यद्यक्षव्यापारसमासादितवपुरेषा प्रतीतिः तथा सति प्रथमभेददर्शनकाल एवापरदेशभेदसमन्वयिसद्रूपपरिच्छेदोऽस्तु । अथ तदा स्मृतिविरहानैकत्वावगतिः, यदा त्वपरदेशभेददर्शनमुपजायते तदा पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रबोधप्रभवस्मृतिसहकृतमिन्द्रिअन्यदेशगतघटादिभेद' का अनुगतत्व स्वरूप सम्भव ही नहीं है । यदि उस का सम्भव मानेंगे तो वह अन्यदेशगत घटादिभेद भी उस काल में वहाँ दृश्यस्वभाव से अभिन्न हो जाने की विपदा होगी। यदि कहें कि अभिन्न हो जाने में कोई पीडा नहीं है तब तो सर्वत्र भेदमात्र का उच्छेद हो जाने से वैविध्य लुप्त हो कर सारा जगत् एकरस बन जायेगा । फलत: वस्तुओं में देशभेद-कालभेद और आकारभेद लुप्त हो जायेगा । दर्शन में भासित होने वाला जो एक देश के भेद का सद्रूप है वह अन्य भेद में तो रहता नहीं इसलिये वह अन्यभेद लुप्त हो जाने की विपदा होगी । यदि कहें कि वही सद्रूप 'अन्य भेद में भी रहता है' ऐसा भान होता है तब तो सभी देशों के भेदों का उस सद्रूप के जरिये प्रतिभास प्रसक्त होगा। अर्थात् सकल भेदों का एक साथ अनुभव होने की आपत्ति होगी। ★ अनुगत सद्रूपत्व का अनुभव असम्भव ★ __यदि अनुगतप्रतीति की उपपत्ति करने के लिये यह कहा जाय - ''यद्यपि एक देश के भेद के अनुभवकाल में अन्यदेशगतभेद से सम्बद्ध सद्रूपत्व का अनुभव नहीं होता, किन्तु फिर भी जब अन्यदेशगत भेद अनुभवगोचर होता है उस काल में प्रथम देशगत सद्रूपत्व का भी भान होता है - इस तरह उत्तरकाल में अनुगताकार अभेद बोध हो सकेगा।" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यदेश के भेद का जब अनुभव होगा तब उसी में रहे हुए सद्रूपता का भान होगा, किन्तु उस में रहे हुए सद्रूपत्व का ऐसा भान नहीं होगा कि यही पूर्वउपलब्ध भेद में भी था। कारण, जब अन्यदेशगत भेद अनुभवगोचर हो रहा है उस काल में पूर्व देश के भेद का संनिधान न होने से प्रतिभास नहीं हो सकता, अत: उस में रहने वाला सद्रूपत्व भी दर्शनगोचर होने की शक्यता शून्य है । अब दिखाईये कि एकदेश में रहे हुए सद्रूपत्व का अनुभव होते समय अन्य अन्य देशगत भेद के समन्वय करने वाले सद्रूपत्व का, यानी सर्वदेशगत भेद में रहे हुए सद्रूपत्व का एक साथ कैसे अनुभव हो सकता है ? ! _ *प्रत्यभिज्ञा से, अनुगतसद्रूपत्व का अवगम अशक्य ★ पूर्वपक्षी : भिन्न भिन्न देशों में रहे हुए भेदों में अनुगतस्वरूप से रहा हुआ सद्रूपत्व स्पष्ट ही प्रत्यभिज्ञा से लक्षित होता है। उत्तरपक्षी : यह दिखाईये कि प्रत्यभिज्ञा क्या है ? प्रत्यक्षरूप ही है क्या ? यदि प्रत्यक्षरूप ही है तब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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