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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वाधितप्रत्ययगम्यत्वादपारमार्थिकत्वमभ्युपगतम् । तत्रैकदेशस्थघटादिभेदाध्यक्षप्रतिपत्तिकाले यत् स्वरूपं तद्भेदपरिष्वक्तवपुः परिस्फुटमध्यक्षे प्रतिभाति न तद् देशान्तरस्थघटादिभेदपरिगतमूर्तितया प्रतिभाति, तत्र तद्भेदानामसनिधानेन प्रतिभासाऽयोगात् तदप्रतिभासने च तत्परिष्वक्तताऽपि तस्य नाधिगतेति कयं देशान्तरस्थभेदानुगतत्वं तस्य भातम् ? यदेव हि स्पष्टगवगतं तद्भेदनिष्ठं तस्य रूपं तदेवाभ्युपगन्तुं युक्तम्। अन्यदेशभेदानुगतस्य तदर्शनाऽसंस्पर्शिनः स्वरूपस्याऽसम्भवात, सम्भवे वा तस्य दृश्यस्वभावाभेदप्रसंगात, तदेकत्वे सर्वत्र भेदप्रतिहतेरनानैकं जगत् स्यात् । दर्शनपरिगतं च तद्देशभेदक्रोडीकृतं सद्रूपं न भेदान्तरपरिगतमिति न तदस्ति । यदि तु तदपि भेदान्तरपरिगतं सद्रूपमाभाति तथा सति सकलदेशपरिगताभेदाः प्रतिभासन्ताम् ।
अथ न प्रथमदेशभेदप्रतिभासकाले देशान्तरपरिगतभेदसम्बन्धि सदूपत्वमाभाति किन्तु यदा अभेद का स्वीकार अयुक्त है।
यह जो कह गया है [२७२-२६, २७३ - १६] देश, काल और आकार के भेदों से वस्तु में भेद होता है ऐसा प्रत्यक्ष आदि से अनुभव नहीं होता - यह असंगत है, क्योंकि इस के सामने समानरूप से यह कह सकते हैं कि अभेद भी प्रत्यक्षादि से अनुभूत नहीं होता । देखो - देश के अभेद से यदि पदार्थों का अभेद मानेंगे तो उस देश-अभेद भी किसी अन्य अभेद पर अवलम्बित मानना पडेगा, वह भी अन्य अभेद पर......इस प्रकार भेदपक्ष में जो अनवस्थादि दोष दिखाया है वे सब यहाँ समान हैं।
★देशान्तरस्थभेदानुगम की अनुपपत्ति* यह ध्यान दे कर सोचने जैसा है - भिन्न भिन्न देश के सम्बन्धिरूप में प्रकाशनेवाले घट-पट आदि समस्त भाव सभी को सद्रपता से भासित होते हैं । सद्पता भासित होती है वह सर्वदेश-सर्वकाल में अवस्थित सर्वभावों में भासित होती है, किसी देश या किसी काल में भासित न हो ऐसा प्रत्यवाय यहाँ सावकाश नहीं है। सद्रूपता निर्बाध अनुभव का विषय होने से वह पारमार्थिक मानी जाती है। अर्थात् सन्मात्र स्वरूप से घट-पटादि को पारमार्थिक माना जाता है । दूसरी ओर घटादिभेद को पारमार्थिक नहीं माना जाता, क्योंकि उन का प्रच्यवन यानी कभी और कहीं वे दिखाई दे और न भी दिखाई दे ऐसा होने से वे अन्य देश-काल में बाधित ज्ञान के विषय बने हुए हैं। अब इस पर यह सोचना चाहिये कि सद्रूपता का कभी भी कहीं भी प्रत्यवाय नहीं होने का आप मानते हैं किन्तु अनुभव तो ऐसा है कि एक देश में रहे हुए घटादि भेदों का जब प्रत्यक्ष से बोध होता है उस काल में उन भेदों से सम्बद्ध जो स्वरूप प्रत्यक्ष में स्पष्ट रूप से भासित होता है, वह 'अन्य देश में रह हुए घटादि भेदों में भी अनुगतस्वरूप वाला है ऐसा अनुभव नहीं होता, क्योंकि एक देश में अन्य देश के घटादि भेदों का सान्निध्य ही नहीं होता । इस लिये वहाँ उन का प्रतिभास भी नहीं होता । जब अन्य देश के घटादि का एक देश में प्रतिभास ही नहीं होता तो अन्यदेशस्थ घटादि भेदों की सम्बद्धता भी एक देश के घटादि में लक्षित नहीं हो सकती । तब मुख्य प्रश्न यह उठता है कि अन्यदेशस्थ भेदों का इस में अनुगम कैसे लक्षित होगा जो अनुगत सत्स्वरूप की प्रतीति के लिये होना आवश्यक है ?
सच बात तो यह है कि एक देश में रहे हुए घटादि में रहने वाले जिस रूप का अनुभव दर्शन से होता हो वही उस घटादि भेद में मानना चाहिये । जो दर्शन का विषय ही नहीं बनता ऐसा 'इस घटादि में *. यहाँ भेदान्द से सर्वत्र 'घटादि विविध पदार्थ ऐसा अर्थ समझना।
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