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________________ द्वितीयः खण्डः - का० - ३ विवेकप्रतिभासः १ न च भेदः कल्पनाज्ञानविषयः अबाधितानुभवगोचरत्वात्, अत एव 'इतरेतराभावरूपत्वान्न भेदः प्रत्यक्षविषयः' इति प्रत्युक्तम्, भावरूपग्रहणे इतरेतराभावरूपस्य भेदस्य प्रतिभासनात् । अनुमानागमयोः स्वरूपस्य तु भेदनिबन्धनत्वान्न भेदबाधकता । एवं प्रमेयभेदनिश्वये प्रमाणादपि प्रमेयस्य भेदो निश्चित एव भवतीति न प्रमाणनिश्चये भेदेऽबाधितत्वाद् भेदस्याभेदाभ्युपगमो युक्तः । यदपि 'देश - कालाssकारभेदैर्भेदो न प्रत्यक्षादिभिः प्रतीयते' इत्याद्युक्तम् [२७१-१३, २७४ - ९] तदप्यसंगतमेव, अभेदप्रतिपत्तावप्यस्य समानत्वात् । तथाहि - अभेदोऽपि पदार्थानां यदि देशाभेदात् तदाऽनवस्थादिदूषणं समानम् । किंच, भिन्नदेशसम्बन्धितया प्रतिभासमानानां घट - पटादीनां सद्रूपतया सर्वेषां प्रतिभासनात् तस्याश्च सर्वत्र सर्वदाऽप्रत्यपायादबाधितप्रत्ययविषयत्वेन पारमार्थिकत्वम् घटादिभेदानां च प्रच्यवनाद् देशान्तरादौ रूप से भी भासित होता तो उस के मर्यादित प्रतिभास का उच्छेद सिर उठायेगा । यदि मानते हैं कि वहाँ घट पदार्थ प्रतिभास के समय अघटरूपपदार्थ प्रतिभास नहीं होता ( किन्तु अघट से भिन्नता का होता है) तो वही भेदप्रतिभासरूप है इतना क्यों नहीं समझते ? आप भी जानते हैं कि घट कभी अघटात्मा (= घटभिन्न) नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक भाव अपने अपने स्वरूप में अवस्थित होते हैं। यदि ऐसा न हो कर घटादि सर्वभाव अघटादिभावरूप में अवस्थित होने का माना जाय तो जलाहरण की तरह शरीराच्छादन आदि समस्त कार्यों में सर्व वस्तु उपयोगी बनने का भी मानना पडेगा । सारांश, घटप्रतिभास के काल में अघटप्रतिभास न होना यही मर्यादितरूप से घट का भान है अर्थात् भेदप्रतिभास है । यदि घटस्वरूप के प्रतिभासक के समय व्यावर्त्तकरूप से भी अन्यभावों का प्रतिभास स्वीकार्य नहीं है तब तो घटादि का सर्वरूप से प्रतिभास यानी मर्यादित एक स्वरूप से अनवभास प्रसक्त होगा । देखिये - घट - स्वरूप की मर्यादितरूप में होनेवाली प्रतीति में यदि अघटस्वरूप का भेद भासित नहीं होता तो वह अघटस्वरूप भी घटमय प्रसक्त होगा । फलतः मर्यादितरूप से घटबोध होगा ही नहीं । इस से यह अनिष्ट प्रसक्त होगा कि किसी को भी मर्यादित रूप से वस्तुदर्शन होने पर भी उस वस्तु की प्राप्ति या उन्मुक्ति के लिये होनेवाला व्यवहार विलुप्त हो जायेगा । सच बात तो यह है कि घटप्रतिभास में, घट में न रहने वाले अर्थात् तद्रूप न होने वाले ( अघटादि) स्वरूप का प्रतिभास संगत ही नहीं है; जब प्रतिभास नहीं है तो उस अप्रतिभासमान स्वरूप के त्याग (= भेद) का अवभास क्यों नहीं होगा ? भेद तो निर्बाध अनुभूति का विषय है इस लिये उस को कल्पनाज्ञान का विषय बताना गलत राह है । यही कारण है कि “भेद अन्योन्यव्यावृत्तिस्वरूप होने से प्रत्यक्ष का विषय नहीं हैं" यह विधान गलत ठहरता है, क्योंकि भावात्मक घट का स्वरूप गृहीत होता है तब अघटादि का भेद जो कि अन्योन्यव्यावृत्तिमय है वह भी स्फुरता है । अनुमान और आगम का स्वरूप तो स्वयं भेद पर निर्भर है, क्योंकि आगम का अन्तर्भाव यदि अनुमान में कर दिया जाय तो उस की स्वतन्त्रता लुप्त हो जायेगी । जब अनुमान और आगम भेदनिर्भर है तो वे भेद के बाधक कैसे होंगे इस प्रकार जब अनुमान - आगम के द्वैविध्य से ही प्रमेयात्मक भेद की हस्ती प्रगट हो जाती है तो फिर प्रमाण के आधार पर प्रमेय का भेद (= वैविध्य ) भी निश्चित हो सकता है । जब भेद में बाधक प्रमाण न होने से वह प्रमाणनिश्चय का विषय सिद्ध होता है तब उस का तिरस्कार कर के एकमात्र Jain Educationa International ३०९ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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