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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तद्रूपत्वात् । अथान्यत्, तन्न, तस्य स्वभावाऽनिर्देशात् । अथ वस्त्वन्तराद् वस्त्वन्तरस्यान्यत्वं प्रत्यक्षं न प्रतिपादयति, तदप्यसत् - भावानां सर्वतो व्यावृत्तत्वात् तथैव चाध्यक्ष प्रतिभासनात् । तथाहि - पु- रोव्यवस्थिते घट-पटादिके वस्तुनि चक्षुर्व्यापारसमुद्भूतप्रतिनियतार्थप्रतिभासादेव सर्वस्मादन्यतो भेदः प्रतिपन्नोऽध्यक्षेण अन्यथा प्रतिनियत- प्रतिभासाऽयोगात् । न ह्यघटरूपतयाऽपि प्रतिभासमानो घटः प्रतिनियतप्रतिभासो भवति, अघटरूपपदार्थाप्रतिभासने च तत्र कथं न ततो भेदप्रतिभासः स्यात् ? नहि तदात्मा भवति, स्वस्वभावव्यवस्थितेः सर्वभावानाम् अन्यथा सर्वस्य सर्वत्रोपयोगादिप्रसंगः, इति अन्याऽप्रतिभासनमेव घटादेः प्रतिनियतरूपपरिच्छेदः । यदि पुनः प्रतिनियतरूपपरिच्छेदेऽपि नान्यरूपपरिच्छेदस्तदा प्रतिनियतैकस्वरूपस्याप्यपरिच्छेदप्रसङ्गः । तथाहि - घटरूपं (?प)प्रतिनियताध्यक्षप्रत्ययेनाप्यघटरूपविवेको नाऽधिगतो यदि तदाऽघटरूपमपि घटरूपं स्यादिति न प्रतिनियतघटरूपप्रतिपत्तिः स्यात् । ततश्च य एष कस्यचित् प्रतिनियतपदार्थदर्शनात् क्वचित् प्राप्ति-परिहारार्थो व्यवहारः स न स्यात् । न च तत्राऽसतो रूपस्य प्रतिभासो युक्तः, अप्रतिभासने च कथं न ततः प्रतिभासमानरूपस्य साथ योजित होते हैं, उस के विना नहीं । उक्त रीति से पराश्रित होने से अभेद भी कल्पनाविषय सिद्ध होता है। यदि अभेद वास्तव माना जाय तो कोई भी भाव व्यवहारोपयोगी नहीं हो सकेगा, जल अग्नि आदि भाव अन्योन्य असमानरूप से जब भासित होते हैं तभी गर्मी के लिये अग्नि, शैत्य के लिये जल इत्यादि व्यवहारोपयोगी होते हैं। कहा है - "जिसे अग्नि चाहिये वह यदि सर्वाभिन्न रूप से ही अग्नि को देखेगा तो न निवृत्ति करेगा और न प्रवृत्ति करेगा (किंतु उदासीन रहेगा)।" - इस का तात्पर्य यह है कि सर्वसामान्य सत्वस्वरूप से अग्नि को देखने पर गर्मी का अर्थी उस की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति नहीं करेगा और गर्मी से परेशान आदमी उस से भागेगा नहीं, प्रवृत्ति - निवृत्ति व्यवहार तभी हो सकते हैं जब जलादि से असमानरूप में अग्नि का - भेद का बोध हो । अन्यत्र भी कहा है - "बोधात्मा वस्तु (के असाधारण रूप) को अवधारित करता है और विपरीत स्वरूप का व्यवच्छेद करता है, साथ साथ इन दों से अतिरिक्त किसी प्रकार के अभाव को सूचित भी करता है।"
★प्रत्यक्ष की भेदग्राहिता का उपपादन★ 'प्रत्यक्ष तो सिर्फ विधायक ही कहा गया है...' यह निवेदन भी उपरोक्त वक्तव्य से निरस्त हो जाता है। कारण, यहाँ प्रश्न उठेगा - विधायकत्व यानी भावस्वरूपग्राहित्व ही है या अन्य कुछ ? यदि भावस्वरूपग्राहित्व कहें तो कोई विरोध नहीं है, भेद भी भावस्वरूप ही है । 'अन्य कुछ' विधायकत्व के स्वभाव का परिचय ही शक्य नहीं तो उस का प्रत्यक्ष के धर्म या स्वभाव के रूप में निर्देश कैसे शक्य है !!
आशंका : एक वस्तु से दूसरी वस्तु की भिन्नता (= भेद) का प्रकाशन करने में प्रत्यक्ष सक्षम नहीं है।
उत्तर : यह वितर्क गलत है । भावात्मक वस्तु सभी वस्तुओं से स्वयं ही भिन्न स्वभाव होती है। यह भिन्नता = भेद स्वभावान्तर्गत वस्तुस्वरूप ही है। प्रत्यक्ष में भिन्नतास्वभाव वस्तु का ही प्रतिभास होता है । सुनिये-घट-वस्त्रादि वस्तु जब नजर के समक्ष होती है तब नेत्रव्यापार से जो मर्यादितरूप में वस्तु का प्रतिभास होता है उस में प्रत्यक्ष के द्वारा सर्ववस्तुओं का भेद गृहीत हो जाता है । यदि यह गलत है तो फिर वस्तु के मर्यादितरूप में प्रतिभास की व्यवस्था नहीं बैठेगी । घट यदि मर्यादित रूप में भासित न हो कर अघट
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