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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३०७ भिन्नं सद् भेदसाधकमेव, न पुनस्तद्वाधकम् । तथाहि - प्रत्यक्षं तावच्चक्षुर्व्यापारसमनन्तरभावि वस्तुभेदमधिगच्छत् उत्पद्यते, यतो भेदो भाव एव तं चाधिगच्छताऽध्यक्षेण कथं भेदो नाधिगतः ? यच्चोकम् [२६९-८] "भेदस्य कल्पनाविषयत्वम् ‘इदमस्माद् व्यावृत्तम्' इत्येवं तस्य व्यवस्थापनात्, अभेदस्तु निरपेक्षाध्यक्षधीसमधिगम्यः" इति तदयुक्तम्, 'इदमनेन समानम्' इत्यनुगतार्थप्रतिभासस्यैवेत- रसव्यपेक्षस्य कल्पनाज्ञानमन्तरेणानुपपत्तेरभेद एव कल्पनाज्ञानविषयः भेदस्तु परस्पराऽसंमिश्रवस्तुबलोद्भूततदाकारसंवेदनाधिगम्यःतदाभासाध्यक्षस्यानुभवसिद्धत्वात्, अध्यक्षस्य भावग्रहणरूपत्वाच्च । भावाश्च स्वस्वरूपव्यवस्थितयो नात्मानं परेण कल्पनाज्ञानमन्तरेण योजयन्ति एवं परस्पराऽसंकीर्णरूपप्रतिभासतो भावानां व्यवहारांगता नान्यथा । तदुक्तम् - "अनलार्थ्यानलं पश्यन्नपि न तिष्ठेत् नापि प्रतिष्ठेत" [ ] पुनरप्युक्तम् “तत् परिच्छिनत्ति अन्यद् व्यवच्छिनत्ति प्रकारान्तराभावं च सूचयति" [ ] इति। एतेन 'आहुर्विधातृ प्रत्यक्षम्' इत्यादि [२७१-१२] पराकृतम् । यतो विधातृत्वं किं प्रत्यक्षस्य भावस्वरूपग्राहित्वम् आहोस्विदन्यत् ? यदि भावस्वरूपग्राहित्वम् न तर्हि भेदग्रहणस्य विरोधः, भेदस्य प्रस्तार का मूल प्ररूपक है वह शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकार से विभक्त है। यह पर्यायार्थिकनय, वस्तु को पर्यायस्वरूप मानने पर तुला है अत: द्रव्यार्थिकनय सम्मत वस्तु की स्थापक युक्तियों का प्रतिक्षेप करते हुए कहता है - __द्रव्यार्थिक ने जो कहा था कि सत्त्वस्वरूप ही होने से सब कुछ एक है [२७०-१८] - इस के ऊपर प्रश्न है कि भेद के प्रमाणबाधित होने से एकत्व का समर्थन करते हो या फिर अभेदसाधक प्रमाण जागरुक है इस लिये ? भेद कोई प्रमाणबाधित नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण तो उल्टा भेद का प्रकाशन करता है नहीं कि भेद न होने का प्रकाशन । कारण, भेद के विना 'यह प्रमाण है - यह अप्रमाण है', ऐसी अथवा 'यह प्रमाण है - यह प्रमेय है' ऐसी व्यवस्था होना दुष्कर है। प्रमाण के भी प्रत्यक्षादि अनेक भेद हैं जो सर्वमान्य हैं, इसी से भेद सिद्ध हो जाता है, भेद की बाधा सिद्ध नहीं होती । देखो - चक्षुःक्रिया के बाद उत्पन्न होने वाला प्रत्यक्ष वस्तु के भेद को ही प्रकाशित करता है, भेद भी भाव की ही एक अवस्था है और उस का जब प्रत्यक्ष होता है तो भेद कैसे अज्ञात रहेगा ? ★ भेद नहीं किन्तु अभेद ही कल्पित है* यह जो द्रव्यार्थिकवादी ने कहा था [२७०-२६] - कि भेद का प्रकाशन तो 'यह इस से जुदा है' इस प्रकार की कल्पना से होता है इस लिये वह कल्पनाविषय है न कि वास्तव, जब कि अभेद तो कल्पनामुक्त प्रत्यक्षबुद्धि से प्रकाशित होता है - यह ठीक नहीं है, क्योंकि वास्तव में भेद नहीं किन्तु अभेद ही कल्पनाज्ञान का विषय (यानी कल्पित) है । 'यह इस से समान है' यह समानाकार प्रतीति पराश्रित होने से कल्पनाज्ञान के विना घट ही नहीं सकती, इस लिये अभेद ही कल्पित है। भेद तो एकदूसरे पर अनाश्रित स्वतंत्र वस्तु स्वरूप है और वह अपने दृश्यत्वबल से उत्पन्न होने वाले तदाकार संवेदन से अधिगत होता है क्योंकि तदाकार प्रत्यक्ष सभी को अनुभवसिद्ध है और प्रत्यक्ष का स्वरूप हमेशा भावग्राही होता है । यह उस से समान है। इस समानाकार अभेदज्ञान में स्पष्ट ही एक भाव दूसरे भाव से योजित होता है। भाव तो स्वयं दूसरे से योजित (पराश्रित) नहीं होते, वे तो अपने अपने स्वरूप में अवस्थित होते हैं किन्तु कल्पनाज्ञान से ही वे अन्य के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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