SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नैगमनयाभिप्रायस्तु द्रव्यास्तिकः शुद्धाऽशुद्धतया आचार्येण न प्रदर्शित एव, नैगमस्य सामान्यग्राहिणः संग्रहेऽन्तर्भूतत्वात् विशेषग्राहिणश्च व्यवहारे इति नैगमाभावाद् । इति द्रव्यप्रतिपादकनयप्रत्ययराशिमूलव्याकरणी द्रव्यास्तिकः शुद्धाऽशुद्धतया व्यवस्थितः । [ पर्यायास्तिकनयनिरूपण - (१) सदद्वैतप्रतिक्षेपकः पर्यायास्तिकनयः ] ___ अत्र पर्यायास्तिक ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ-एवंभूतनयप्रत्ययराशिमूलव्याकरणी शुद्धाऽशुद्धतया व्यवस्थितः पर्यायलक्षणविषयव्यवस्थापनपरो द्रव्यास्तिकनयाभिप्रेतवस्तुव्यवस्थापनयुक्ति प्रतिक्षिपति - यदुक्तं द्रव्यास्तिकेन 'सर्वमेकं सदविशेषात्' [२६९-५] तत् किं भेदस्य प्रमाणबाधितत्वादेकमुच्यते आहोस्विदभेदे प्रमाणसद्भावात् ? न तावद् भेदस्य प्रमाणबाधितत्वम् यतः प्रमाणं प्रत्यक्षादिकं भेदमुपोद्वलयति न पुनस्तद्वाधया प्रवर्तते, भेदमन्तरेण प्रमाणेतरव्यवस्थितेरेवाभावात् । प्रमाणं च प्रत्यक्षानुमानादिभेदेन जाता है । जब प्रलयकाल आता है तब पाँच भूत आदि तत्त्वों का ‘अविभाग' यानी अपने अपने कारण-तत्त्वों में विलय होता है । जैसे, पाँच भूत पाँच तन्मात्रा में विलीन होते हैं, तन्मात्रा और इन्द्रियाँ अहंकार में, अहंकार बुद्धि में और बुद्धि प्रधान में विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार तीनों लोक का विलय होता है। अविभाग या विलय का मतलब है अविवेक । जैसे, क्षीरावस्था में 'क्षीर अलग - दहीं अलग' ऐसा विवेक = विभाग दिखा नहीं सकते इसी तरह प्रलय काल में 'यह व्यक्त और यह अव्यक्त' ऐसी विवेकक्रिया अशक्य होती है। यहाँ सभी कार्य-तत्त्वों का कारणतत्त्व में विलय होता है तो बुद्धि का विलय होने के लिये भी कोई 'प्रधान' नाम का तत्त्व है जिस में महत् आदि लिंग (यानी विलीन होने वाले तत्त्वों) का अविभाग (= विलय) होता है। निष्कर्ष, अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय सत्त्व-रजस्-तमस् स्वरूप सामान्य एक अचेतन द्रव्य और अनेक चेतन पुरुष संज्ञक द्रव्यों का भिन्न भिन्न रूप से अंगीकार करता है, वैसे द्रव्यों के अंगीकार में जिस का अर्थ = अभिप्राय है ऐसा नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक है। अशुद्ध इस लिये कि वह शुद्धद्रव्यग्राही संग्रह को छोड कर व्यवहारनयमान्य सभेद द्रव्यरूप अर्थ का अंगीकार करता है। आचार्य श्री सिद्धसेनसूरि इसी बात को तीसरे कांड की ४८ वीं गाथा से भी बतायेंगे कि कपिल का सांख्य-दर्शन पूरा द्रव्यार्थिकनय का वक्तव्य है। प्रश्न : अन्य आचार्यों ने नैगमनय का भी द्रव्यार्थिक में समावेश दिखाया है तो आपने शुद्ध-अशुद्ध नैगम को इस में क्यों नहीं बताया ? उत्तर : आचार्य भगवन्तने वह नहीं बताया इस का कारण यह है कि सामान्यग्राही नैगमनय का संग्रहनय में अन्तर्भाव है और विशेषग्राही नैगमनय का व्यवहारनय में अन्तर्भाव है । इस प्रकार संग्रहव्यवहारोभयस्वरूप द्रव्यार्थिक में अन्तर्भाव न होता हो ऐसा स्वतन्त्र कोई नैगमनय है नहीं। उपरोक्त विवेचन के अनुसार यह व्यवस्था स्पष्ट हो जाती है कि द्रव्य का निरूपण करने वाली नयप्रतीतियों के समुदाय का मूल व्याकरण प्रकाशन करनेवाला द्रव्यास्तिकनय है जिस का शुद्ध और अशुद्ध ये दो भेद हैं । ★ पर्यायास्तिकनयप्ररूपणा - अद्वैतप्रतिक्षेप★ पर्यायास्तिक नय जो कि ऋजुसूत्र - शब्द - समभिरूढ - एवंभूत इन चार अवान्तरनय प्रत्ययों के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy