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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३०५ धारणसमर्थः न मृत्पिण्डः, एवमिदं महदादिकार्यं दृष्ट्वा साधयामः अस्ति प्रधानं कारणम् यस्मादिदं महदादिकार्यमिति । (५) इतवास्ति प्रधानम् वैश्वरूप्यस्याऽविभागात् । 'वैश्वरूप्यम्' इति त्रयो लोका उच्यन्ते, एते हि प्रलयकाले कंचिदविभागं गच्छन्ति । तथाहि- पञ्च भूतानि पञ्चसु तन्मात्रेषु अविभागं गच्छन्ति, तन्मात्राणीन्द्रियाणि चाहंकारे, अहंकारस्तु बुद्धौ, बुद्धिः प्रधाने तदेवं प्रलयकाले त्रयो लोका अविभागं गच्छन्ति । अविभागोऽविवेकः यथा क्षीरावस्थायां 'अन्यत् क्षीरम्' 'अन्यद् दधि' इति विवेको न शक्योऽभिधातुम् तद्वत् प्रलयकाले 'इदं व्यक्तम्' 'इदमव्यक्तम्' इति विवेकोऽशक्यक्रिय इति मन्यामहे - 'अस्ति प्रधानम् यत्र महदादिलिंगमविभागं गच्छती'ति । सत्त्व-रजस्तमोलक्षणं सामान्यमेकमचेतनं द्रव्यम् अनेकं च चेतनं द्रव्यमर्थोऽस्तीति द्रव्यार्थिकः अशुद्धो व्यवहारनयाभिप्रेतार्थाभ्युपगमस्वरूपः बोद्धव्यः । वक्ष्यति आचार्यः - 'जं काविलं दरिसणं एवं दबट्ठियस्स वत्तव्यं ।' [स०३-४८] इति । में सुखादिस्वभाववाला पदार्थ सिद्ध हुआ तो यह अनायास अर्थत: सिद्ध हो जाता है कि वही पदार्थ समस्त व्यक्त का मूल यानी प्रकृति है और वही हमारा साध्य प्रधान तत्त्व है । इस प्रकार भेदों के समन्वय के दर्शन से प्रधान का अस्तित्व स्फुट होता है । ★तीसरा हेतु शक्ति अनुसार प्रवृत्ति ★ (३) तीसरा हेतु है शक्ति अनुसार प्रवृत्ति । स्पष्टता:- इस जगत् में जो जिस अर्थ में (अर्थ को निपजाने के लिये) प्रवृत्त होता है वह उसको निपजाने वाली शक्ति से समन्वित होता है यह नियम है । उदा० जुलाहा वस बुनने की प्रवृत्ति करता है क्योंकि वह तदनुरूप शक्ति धारण करता है। इस नियमानुसार यह कह सकते हैं कि कार्य विना किसी की शक्ति से उत्पन्न नहीं होता। व्यक्त वर्ग उत्पन्न होता है तो उसको उत्पन्न करने की शक्ति भी किसी (प्रधान जैसे) तत्त्व में अवश्य होनी चाहिये, कोई भी शक्ति अनाश्रित तो नहीं हो सकती अत: यह अनुमान से फलित होता है कि जहाँ उस शक्ति का वास है वह कोई प्रधान तत्त्व अवश्य हस्ती में है। ★प्रधानसाधक चौथा हेतु कारण-कार्यविभाग★ (४) प्रधान की सिद्धि में चौथा हेतु है कारण-कार्यविभाग । इस जगत् में कार्य और कारण का विभाग दिखता है। जैसे: मिट्टीपिण्ड कारण है और घट उस का कार्य है जो कि मिट्टीपिण्ड से कुछ विभिन्न स्वभाववाला है। सोचिये - मध, जल या दुग्ध का धारण-वहन करने के लिये घट ही समर्थ होता है न कि मिट्टी का पिण्ड । प्रस्तुत में भी महत् आदि कार्यों को देख कर यह सिद्ध हो सकता है कि यहाँ भी कारण-कार्य का स्पष्ट विभाग होना चाहिये । तात्पर्य, महत् आदि कार्य उपलब्ध होते हैं तो उन के साथ कार्य-कारण भाव धारण करने वाला कोई प्रधान तत्त्वरूप मूल कारण भी होना चाहिये जिस में से इन महत् आदि का जन्म होता है। * पाँचवा हेतु - वैश्वरूप्य का अविभाग* (५) 'वैश्वरूप्प का अविभाग' यह प्रधानसिद्धि का पंचम हेतु है। तीन लोक को ही वैश्वरूप्य कहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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