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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् रजश्व दुःखम् । दैन्यावरण-सादन-विध्वंस-बीभत्सगौरवाणि तमसः कार्यम् तमश्च मोहशब्देनोच्यते । एषां च महदादीनां सर्वेषां प्रसाद-ताप-दैन्यादि कार्यमुपलभ्यते इति सुख-दुःख-मोहानां त्रयाणामेते संनिवेशविशेषा इत्यवसीयते, तेन सिद्धमेतेषां प्रसादादिकार्यतः सुखाद्यन्वितत्वम्, तदन्वयाच्च तन्मयप्रकृतिसम्भूतत्वं सिद्धिमासादयति, तत्सिद्धौ च सामर्थ्याद् याऽसौ प्रकृतिः तत् प्रधानमिति सिद्धम् 'अस्ति प्रधानम्' भेदानामन्वयदर्शनात् ।
(३) इतश्चास्ति प्रधानम्, शक्तितः प्रवृत्तेः । इह लोके यो यस्मिन्नर्थे प्रवर्तते स तत्र शक्तः यथा तन्तुवायः पटकरणे अतः प्रधानस्यास्ति शक्तिर्यया व्यक्तमुत्पादयति, सा च शक्तिनिराश्रया न सम्भवति तस्मादस्ति प्रधानं यत्र शक्तिवर्त्तते इति ।
(४) इतथास्ति प्रधानम् कारण-कार्यविभागात् । इह लोके कार्य-कारणयोर्विभागो दृष्टः, तद्यथा मृत्पिण्डः कारणम् घटः कार्यम् स च मृत्पिण्डाद् विभक्तस्वभावः । तथाहि - घटो मधूदकपयसां परिमाणवाले, जैसे कि कोई 'प्रस्थपरिमाण जलादि समाने वाले या कोई आढक परिमाण जलादि समाने वाले घट को उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह है कि जो मर्यादित परिमाणवाला होता है उस का जरूर कोई उपादान कारण होता है । ये महत् आदि तत्त्व भी मर्यादित परिमाणवाले ही दिखाई देते हैं, जैसे बुद्धि और अहंकार एक एक और परिमित होते हैं । तन्मात्राएँ पाँच ही हैं, इन्द्रियाँ ग्यारह ही हैं, भूत पाँच ही हैं। अत: 'जो मर्यादित परिमाणवाले होते हैं वे उपादानकारणसहित होते हैं जैसे घट' इस अनुमान से यह सिद्ध हो सकता है कि प्रधानसंज्ञक कोई उपादान तत्त्व है जो परिमित व्यक्त (बुद्धि आदि) को उत्पन्न करता है । अगर यह प्रधानतत्त्व न होता तो जगत् में कहीं भी व्यक्तमात्र अपरिमित ही उपलब्ध होता।
★ दूसरा हेतु-भेदों का समन्वय * (२) प्रधानतत्त्व की सिद्धि के लिये भेदों का समन्वय यानी अन्वयदर्शन यह दूसरा हेतु है । यह नियम है कि जो जिस जाति से समन्वित उपलब्ध होता है वह उसी जाति से समन्वित कारण से उत्पन्न होता है; उदा. घट, शराव आदि भेद मृत्त्व जाति से अन्वित उपलब्ध होते हैं तो वे मृत्त्वजातिवाली मिट्टी से पैदा होते हैं। प्रस्तुत में, व्यक्त सभी तत्त्व सुख-दुख-मोहादि (यानी सत्त्व-रजस्-तमस् आदि) जाति से समन्वित उपलब्ध होते हैं- यह उन में उपलब्ध होने वाले प्रसादादि, तापादि, दैन्यादि कार्यों से सिद्ध है । इस तथ्य की स्पष्टता देखिये- प्रसादादि यानी प्रसाद, लाघव, अभिष्वंग, उद्धर्ष और प्रीति ये सब सत्त्व के कार्य हैं, सत्त्व और सुख एक ही बात है । तापादि यानी ताप-शोष-भेद-स्तम्भ और उद्वेग ये रजस् के कार्य हैं, रजस् कहिये या दुःख कहिये- एक हैं । दैन्य-आवरण-सादन-ध्वंस-बीभत्स और गौरव ये तमस् के कार्य हैं, तमस् या मोह एक ही है। इन महत् आदि सभी व्यक्त तत्त्वों में प्रसादादि, तापादि और दैन्यादि कार्य दिखाई पड़ते हैं इसलिये सब सुख-दुख और मोह की त्रिपुटी के ही रचनाविशेषरूप है यह स्पष्ट हो जाता है । तात्पर्य, प्रसादादि कार्यलिंग से व्यक्त में सुखादि का अन्वय सिद्ध होता है, और पूर्वोक्त नियम के अनुसार व्यक्त तत्त्व सुखादिसमन्वित होने के हेतु से, सुखादिमय स्वभाववाले तत्त्व से निपजे हुए हैं यह भी सिद्ध हो जाता है। जब व्यक्त के कारणरूप १. ३२ पलों के बराबर माप को प्रस्थ कहते हैं। २ - द्रोण के चौथे भाग को आढक कहते हैं । श्लोक- "अष्टमुष्टिर्भवेत् कुं
तु पुष्कलम् । पुष्कलानि च चत्वारि आढक: परिकीर्तितः ॥'- अर्थ: आठ मुठी = १ कुंचि, आठ कुंचि-१ पुष्कल, चार पुष्कल = १ आढक । तथा ४ कुडव = १ प्रस्थ, ४ प्रस्थ % १ आढक ।
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