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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
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इति पञ्चभ्यो वीतप्रयोगेभ्यः । तथाहि - (१) अस्ति प्रधानम्, भेदानां परिमाणात्, इह लोके यस्य सत्ता भवति तस्य परिमाणं दृष्टम्, यथा कुलालः परिमितात् मृत्पिण्डात् परिमितं घटमुत्पादयति प्रस्थग्राहिणम् आढकग्राहिणं वा । इदं च महदादि व्यक्तं परिमितमुपलभ्यते - एका बुद्धिः एकोऽहंकारः पञ्च तन्मात्राणि एकादशेन्द्रियाणि पञ्च भूतानि - ततोऽनुमानेन साधयामः अस्ति प्रधानम् यत् परिमितं व्यक्तमुत्पादयति, यदि च प्रधानं न स्यात् निष्परिमाणमिदं व्यक्तं स्यात् ।।
(२) इतश्चास्ति प्रधानम्, भेदानामन्वयदर्शनात् । यज्जातिसमन्वितं हि यदुपलभ्यते तत् तन्मयकारणसम्भूतम् यथा घटशरावादयो भेदा मृज्जात्यन्विता मृदात्मककारणसम्भूताः, सुख-दुःख-मोहादिजातिसमन्वितं चेदं व्यक्तमुपलभ्यते प्रसाद-ताप-दैन्यादिकार्योंपलब्धः । तथाहि-प्रसाद-लाघवाभिष्वंगोद्धर्ष-प्रीतयः सत्त्वस्य कार्यम् सुखमिति च सत्त्वमेवोच्यते । ताप-शोष-भेद-स्तम्भोरेगा रजसः कार्यम् कारण जिस शक्य कार्य को उत्पन्न करने के लिये शक्तिशालि होता है उसी को वह उत्पन्न कर सकता है। अनुत्पन्न कार्य सर्वथा असत् होने पर 'उस की उत्पादक शक्ति अमुक में ही है' ऐसा विधान ही हो नहीं सकता अत: उत्पत्ति के पूर्व कारण में कार्यसत्ता मानना चाहिये ।
★ सत्कार्यसाधक पाँचवा हेतु कारणभाव ★ पाँचवा हेतु है 'कारणभाव', इस का 'कार्यस्यैव' इस कारिका से समर्थन किया जाता है । 'एवं' यानी 'असत् का अकरण' इत्यादि चार हेतुओं से जब यह सिद्ध होता है कि असत्कार्यवाद में किसी भी उपाय से कार्य का योग (यानी संगति) जमता नहीं है, तब 'कारण' शब्द के अर्थ को लेकर यह प्रश्न होगा कि वह कारणरूप से अभिमत बीजादि, क्या ऐसा करते हैं, (उन में क्या ऐसा तत्त्व है) जिस से कि उस को 'कारण' (= कुछ करने वाला) कहा जा सके ? यदि उस में वैसा (कार्य की अव्यक्त सत्तारूप) कुछ तत्त्व नहीं है तो ऐसा ही कहना पडेगा कि बीजादि 'कारण' ही नहीं है क्योंकि उन का कोई कार्य नहीं है जैसे कि गगनपद्म । इस प्रकार जब बीजादि में अनिष्टभूत कारणत्वाभाव का प्रसंग टालना है तो कहना होगा कि बीजादि 'कारण न हो' ऐसा तो नहीं है इस लिये उन में कार्य के असत्त्व के विपर्यय को यानी सत्त्व को मानना पड़ेगा। तब यह अनायास सिद्ध होता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व भी कहीं सत् (विद्यमान) होता है।
*प्रधानतत्त्व के आविर्भाव में पाँच अनुमान* प्रभ : कार्य उत्पत्ति के पहले सत् होता है यह तो सिद्ध हुआ, लेकिन अब यह दिखाईये कि 'बुद्धि आदि कार्यभेद प्रधानतत्त्व से ही आविर्भूत होते हैं। यह कैसे सिद्ध हो सकता है ?
उत्तर : 'भेदानां०' इत्यादि १५ वीं सांख्यकारिका में पाँच वीत अनुमानप्रयोग दिये गये हैं उन से प्रधानतत्त्व की सिद्धि की गयी है, उसी से यह फलित हो जाता है कि बुद्धि आदि कार्यभेद प्रधान से आविर्भूत होते हैं। अनुमान के दो भेद होते हैं वीत और अवीत । अन्वय व्याप्ति से किया जाने वाला वस्तुसत्तासाधक अनुमान वीत कहलाता है और व्यतिरेकव्याप्ति से किया जाने वाला वस्तुनिषेधसूचक अनुमान अवीत कहलाता है। यहाँ पाँचों अनुमान अन्वयमुख से अव्यक्त (= प्रधान) के अस्तित्व को सिद्ध करता है । (१) 'भेदों का (= महत् आदि कार्यों का) परिमाण' यह पहला हेतु है । इस जगत् में दिखता है कि जिस का अस्तित्व है उस का कोई न कोई परिमाण जरूर होता है । जैसे: कुम्हार परिमित यानी सीमित मिट्टीपिण्ड से परिमित यानी मर्यादित
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