________________
३०२
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अतस्तथाभूतपदार्थकारित्वाभ्युपगमे कारणानामशक्यकारित्वमेवाभ्युपगतं स्यात् । न चाशक्यं केनचित् क्रियते यथा गगनाम्भोरुहम्, अतः 'शक्तिप्रतिनियमात्' इत्यनुत्तरमेतत् । एतेन 'शक्तस्य शक्यकरणात्' इति चतुर्थोऽपि हेतुः समर्थितः ।
कार्यस्यैवमयोगाच्च किं कुर्वत् कारणं भवेत् ।
ततः कारणभावोऽपि वीजादे वकल्पते ॥ [तत्त्वसंग्रह का० १३] इति पञ्चमहेतुसमर्थनम् । अस्यार्थः - एवं यथोक्ताद्धेतुचतुष्टयाद् असत्कार्यवादे सर्वथाऽपि कार्यस्याऽयोगात् किं कुर्वद् बीजादि कारणं भवेत् ? ततथैवं शक्यते वक्तुम् - न कारणं बीजादिः अविद्यमानकार्यत्वाद् गगनाजवत् । न चैवं भवति, तस्माद् विपर्ययः । इति सिद्धं प्रागुत्पत्तेः सत् कार्यमिति ।
स्यादेतत् - यदि नाम 'सत् कार्यम्' इत्येवं सिद्धम्, 'प्रधानादेव महदादिकार्यभेदाः प्रवर्त्तन्ते' इत्येतत् तु कथं सिद्धिमासादयति ? उच्यते -
भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य ॥ [सांख्यकारिका १५] कारणमस्त्यव्यक्तम् [का. १६] कि अशक्य कार्य का हेतु से जन्म होता है । सुनिये - जो असत् होता है वह स्वरूपशून्य यानी नीरूप होता है, शशसींग की तरह उस में कोई भी नया संस्कार नहीं निपजाया जा सकता । संस्कारअयोग्य होने के कारण ही वह आकाश की तरह अविकारी होता है । अब जो ऐसा किसी भी विशेषता से बाह्य असत् है उस को कौन निपजा सकता है ?! वह कैसे शक्यक्रिय हो सकता है ?
आशंका : अरे ! असत् अवस्था को छोड कर वह 'सत्' अवस्था में आ जाता है यही विकार है, इस लिये वह शक्यक्रिय क्यों नहीं ?
उत्तर : यह भी गलत वक्तव्य है, क्योंकि असत् यदि विकृत होगा तो उस के असत्त्व का ही लोप हो जायेगा । कारण, असत् में विक्रिया मानने पर उस के स्वत्व को नीरूप कहा गया है वह गलत ठहरेगा । स्वभाव का - स्वत्व का त्याग किये विना असत् की सरूपताप्राप्ति घट नहीं सकती । अथवा मान लो कि असत् ने असत् स्वरूप का त्याग कर दिया, किन्तु तब 'असत् ने सत्स्वरूप की प्राप्ति की' ऐसा सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि सत्स्वरूप प्राप्त करने वाला तत्त्व अपने असत्रूप को तो खो बैठा है । असत् और सत् तो एक-दूसरे के परिहारी है इस लिये सत् पदार्थ अलग है और असत् पदार्थ भी अलग है, उन दोनों में कुछ भी नाता नहीं है। अत: यह फलित होता है कि जो असत है वह कभी शक्यक्रिय नहीं होता. फिर भी यदि तथाविध पदार्थ उत्पन्न करने का यश कारणों को दिया जाय तो आप उन कारणों में अशक्यार्थकारिता को मान्यता दे बैठे, जो अनुचित है । जो अशक्य होता है जैसे गगनकमल, उस को कोई भी नहीं निपजा सकता । इस लिये आपने जो कहा था कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व असत् होने पर भी उस को निपजाने की शक्ति जिन मर्यादित कारणों में होती है उन कारणों से ही उन कार्यों का जन्म हो सकता है....इत्यादि यह कृत्रिम उत्तर है, सच्चा नहीं ।
उपरोक्त चर्चा में 'शक्त का शक्यकरण' यह चौथा हेतु भी चर्चित हो गया है । इस का तात्पर्य यह है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व किसी भी ढंग से अपने कारण के साथ सम्बद्ध हो तभी ऐसा कह सकते हैं कि
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org