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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३०१ ननु केनैतदुक्तम् - 'अशक्यं कुर्वन्ति' इति, येनैतत् प्रतिषिध्यते भवता ? किन्तु 'असदपि कार्यं कुर्वन्ति' इत्येतावदुच्यते । तच्च तेषां शक्यक्रियमेव । असदेतत्, असत्कार्यकारित्वाभ्युपगमादेव अशक्यक्रियं कुर्वन्ति । तथाहि - यदसत् तन्नीरूपम् यच्च नीरूपं तत् शशविषाणादिवद् अनाघेयातिशयम् यच्च अनाधेयातिशयं तदाकाशवदविकारि, तथाभूतं चाऽसमासादितविशेषरूपं कथं केनचिच्छक्यते कर्तुम् ? अथ सदवस्थाप्रतिपत्तेर्विक्रियत एव तत्, एतदप्यसत्, विकृतावात्महानिप्राप्तेः । यतो विकृताविष्यमाणायां यस्तस्यात्मा नीरूपाख्यो वर्ण्यते तस्य हानिः प्रसज्यते । न ह्यसतः स्वभावाऽ. परित्यागे सद्रूपतापत्तिर्युक्ता, परित्यागे वा नासदेव सद्रूपता प्रतिपत्रमिति सिद्धयेत् अन्यदेव हि सद्रूपम् अन्यच्च असद्रूपम् परस्परपरिहारेण तयोरवस्थितत्वात् । तस्मात् यद् असत् तद् अशक्यक्रियमेव, होता है । तो तृणादि से जैसे अपने तादात्म्य के विना भी रज्जु आदि कार्य निष्पन्न होता है वैसे ही तादात्म्याभाव वाले स्वर्ण-चाँदी आदि कार्य भी निष्पन्न हो सकते हैं। दूसरे और तीसरे हेतु में ऐसे तो समानता दिखती है किन्तु फर्क इतना है कि दूसरे हेतु में यह बात कारण मुख से कही गयी है - अर्थात् एक ही चावलादि कार्य की चावल-कोदरादि समस्त कारणों से उत्पत्ति होने का आपादन किया गया है : जब कि तीसरे हेतु में कार्यमुख से वही बात कही गयी है - एक ही तृणादि वस्तु से समस्त कार्य की उत्पत्ति का आपादन किया है। उपनय में कहते हैं कि समस्त कार्य प्रत्येक कारण-वस्तु से उत्पन्न होता है ऐसा तो है नहीं - इस से यह नियम फलित होता है कि प्रतिनियत कार्य का अपनी उत्पत्ति के पूर्व भी अमुक ही कारण में सद्भाव होता आशंका : कारणों में अमुक मर्यादित कार्यों को ही उत्पन्न करने की अमुक मर्यादित शक्ति होती है । अत: इस मर्यादा के होते हुए, उत्पत्ति के पूर्व समस्त कार्य असत् होते हुए भी वे अपनी अपनी मर्यादित उत्पादक शक्ति को धारण करने वाले मर्यादित कारणों से ही उत्पन्न होते हैं । यही कारण है कि गगनकमल का जन्म ही नहीं हो पाता । इसी तरह यह भी नियम है कि अमुक कार्य के लिये उस का कर्ता अमुक मर्यादित कारण को ही ढूँढता है, वह जिस कारण को ढूँढता है वही कारण उस कार्य के लिये सक्षम होता है न कि सभी कारण । अत: सारांश यह है कि किसी एक मर्यादित कारणसामग्री से कोई एक मर्यादित कार्य ही उत्पन्न होता है न कि समस्त कार्यवृंद किसी भी एक कारण से । उत्तर : यह वक्तव्य गलत है। कारण, शक्तिशालि हेतु भी जिस कार्य की उत्पादन क्रिया अपने से शक्य होती है उसी कार्य को उत्पन्न करता है, अशक्य कार्य को नहीं । यानी शक्ति भी अमुक मर्यादित कार्य के लिये ही होती है, यह भी तभी कहा जा सकता है जब उसी कार्य को उस कारण में शक्तिरूप से, उत्पत्ति के पूर्व भी विद्यमान माना जाय । ★ शक्तिशालि हेतु से शक्यकार्यजन्म ★ प्रश्न : अरे ! किसने आप को कहा कि शक्तिशालि हेतु अशक्य कार्य को करता है ? क्यों आप अशक्यक्रिया का निषेध करने का कष्ट कर रहे हैं ? हम तो इतना ही कहते हैं शक्तिशालि हेतु उत्पत्तिपूर्व सत् न होने वाले कार्य को भी जन्म देते हैं, और वह कार्य उन हेतुओं के लिये शक्यक्रिय ही होता है । उत्तर : ऐसा प्रश्न गलत है, जब आप हेतु को असत्कार्यकारि मानते हो तो उस का यही मतलब है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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