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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् 'सर्वसम्भवाभावात्' इति तृतीयो हेतुः - यदि हि असदेव कार्यमुत्पद्यते तदा सर्वस्मात् तृणपांश्वादेः सर्व स्वर्ण-रजतादिकार्यमुत्पयेत, सर्वस्मिनुत्पत्तिमति भावे तृणादिकारणभावात्मताविरहस्याऽविशिष्टत्वात् । पूर्व कारणमुखेन प्रसङ्ग उक्तः सम्प्रति तु कार्यद्वारेणेति विशेषः । न च सर्वं सर्वतो भवति, तस्मादयं नियमः 'तत्रैव तस्य सद्भावात्' इति गम्यते ।। स्यादेतत् - कारणानां प्रतिनियतेष्वेव कार्येषु शक्तयः प्रतिनियताः तेन कार्यस्याऽसत्त्वेऽपि किंचिदेव कार्य क्रियते - न गगनांभोरुहम् - किंचिदेव चोपादानमुपादीयते त(?य)देव समर्थम् न तु सर्वम्, किंचिदेव च कुतश्चिद् भवति न तु सर्वं सर्वस्मादिति । असदेतत्, यतः शक्ता अपि हेतवः कार्य कुर्वाणाः शक्यक्रियमेव कुर्वन्ति नाऽशक्यम् । के लिये कोई समर्थ नहीं है । अनुमानप्रयोग - जो सर्वथा असत् होता है वह किसी से भी नहीं निपजाया जाता, उदा० गगनकुसुम, प्रतिवादि के मत में उत्पत्ति के पूर्व कार्य सर्वथा असत् होता है। इस प्रकार यहाँ व्यापकविरुद्धोपलब्धिस्वरूप प्रसंगापादन है, 'किसी से भी निपजाया जाना' इस का मतलब है कारणसाध्यत्व, उस का व्यापक है सत्त्व और उस के विरोधी असत्त्व की वहाँ उपलब्धि होती है, जहाँ असत्त्व उपलब्ध है वहाँ सत्त्व नहीं रहने से उस के व्याप्यभूत 'कारणसाध्यत्व' का अभाव आपादित हो सकता है। किन्तु कार्यों में कारणसाध्यत्वाभाव तो नहीं ही रहता, अत: मानना होगा कि जो कुछ भी तिलादि कारणों से तैलादि कार्य निष्पन्न होता है वह उस की उत्पत्ति के पूर्व भी सत् होना चाहिये । सारांश, उत्पत्ति के पूर्व भी कारण में कार्य शक्तिरूप से विद्यमान रहता है । व्यक्तिरूप से उस काल में सत्त्व तो कपिलमतानुयायी सांख्यवादी भी नहीं मानते हैं। _ 'उपादान का ग्रहण' इस दूसरे हेतु का समर्थन - कार्य यदि उत्पत्ति के पहले कारण में विद्यमान न हो, तो उस का कर्ता जो अमुक ही विशिष्ट उपादान कारण को अपनी कार्यसिद्धि के लिये ढूँढता है वह नहीं होता । चावल-उत्पादन चाहने वाला चावल के बीज को ही बोता है, कोदरा के बीज को नहीं बोता | चावल तो उत्पत्ति के पूर्व (प्रतिवादी के मत में) जैसे चावलबीज में अविद्यमान हैं वैसे ही कोदराबीज में भी अविद्यमान है । जब उन दोनों में समानरूप से, उत्पत्ति के पहले चावल असत् हैं तब कर्त्ता सिर्फ अमुक विशिष्ट चावलबीजों को ही क्यों बोता है, कोदरा के बीज को क्यों नहीं बोता जब कि अविद्यमानता तो दोनों में तुल्य है तो चावल-उत्पादन की चाह वाले को कोदरा आदि के बीजों को भी बोने में उद्यम करना चाहिये । यदि कहें कि - कोदरा के बीज चावलरूप फल से शून्य होने के कारण वे नहीं बोये जाते हैं - तब तो फिर चावलबीज भी उत्पत्ति के पूर्व चावलशून्य होने से चावल बीज की चाहवाले को कोदराबीज की तरह चावलबीज भी नहीं बोना चाहिये । किन्तु ऐसा तो नहीं होता, अत: यह फलित होता है कि चावल अपनी उत्पत्ति के पूर्व भी चावल के बीजों में शक्तिरूप से विद्यमान होते हैं। ★ सत्कार्यसिद्धि में सर्वसम्भवाभाव हेतु ★ 'सर्वसम्भवाभाव' यह तीसरा हेतु है -- कार्य यदि पूर्व में असत् हो कर उत्पन्न होता है तो तृण एवं पांशु आदि से समस्त सुवर्ण-चाँदी आदि कार्यसमूह उत्पन्न होना चाहिये । कारण यह है कि उत्पत्तिशील किसी भी सुवर्णादि अथवा वस्त्रादि पदार्थ का, तृणादि कारण के साथ तादात्म्य का विरह विना किसी पक्षपात से * पूर्व = द्वितीयहेतुप्रसंगे [पृ० ३०७-६] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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