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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
२९९ अत्र च 'असदकरणात्' इति प्रथमो हेतुः सत्कार्यसाधनायोपन्यस्तः एवं समर्थितः - यदि हि कारणात्मनि उत्पत्तेः प्राक् कार्य नाऽभविष्यत् तदा न तत् केनचिदकरिष्यत, यथा गगनारविन्दम् । प्रयोगः - यदसत् तन केनचित् क्रियते, यथा नभोनलिनम्, असत्त्व(च्च) प्रागुत्पत्तेः परमतेन कार्यमिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिप्रसंगः । न चैवं भवति तस्मात् यत् क्रियते तिलादिभिस्तैलादि कार्य तत् तस्मात् प्रागपि सत्, इति सिद्धं शक्तिरूपेणोत्पत्तेः प्रागपि कारणे कार्यम्, व्यक्तिरूपतया च तत् तदा कापिलैरपि नेष्यते ।
___'उपादानग्रहणात्' इति द्वितीयहेतुसमर्थनम् - यदि असद् भवेत् कारणे कार्यम् तदा पुरुषाणां प्रतिनियतोपादानग्रहणं न स्यात्, शालिफलार्थिनस्तु शालिबीजमेवोपाददते न कोद्रवबीजम् । तत्र यथा शालिबीजादिषु शाल्यादीनामसत्त्वम् तथा यदि कोद्रवबीजादिष्वपि, किमिति तुल्ये सर्वत्र शालिफलादीनामसत्त्वे प्रतिनियतान्येव शालिबीजानि गृह्णन्ति न कोद्रवबीजादिकम्, यावता कोद्रवादयोऽपि शालिफलार्थिभिरुपादीयेरन् असत्त्वाऽविशेषात् । अथ तत्फलशून्यत्वात् तैस्ते नोपादीयन्ते, यद्येवं शालिबीजमपि शालिफलार्थिना तत्फलशून्यत्वानोपादेयं स्यात् कोद्रवबीजवत्, न चैवं भवति, तस्मात् तत्र तत् कार्यमस्तीति गम्यते । पुरुष के अनुमान में लिंग है किन्तु कार्यात्मक लिंग नहीं है ।) व्यक्त तत्त्व शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शात्मक अवयवों से भूषित होने से सावयव है किन्तु अव्यक्त के कोई अवयव नहीं होते क्योंकि उस में कोई शब्दादिअवयव नहीं होते । जैसे पिता के जीवित रहते पुत्र कभी स्वतन्त्र नहीं होता वैसे ही व्यक्त भी सदा कारणाधीन रहने से स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र ही होता है, अव्यक्त तत्त्व कभी भी कारणाधीन न होने से स्वतन्त्र ही होता है ।
इस प्रकार व्यक्त-अव्यक्त की विभिन्नता का प्रतिपादन कैसे शोभास्पद होगा जब कि पहले कार्यभेदों को अव्यक्तरूप कहा है ?
उत्तर : ऐसा प्रश्न उचित नहीं है क्योंकि परमार्थ से तो ये सब प्रकृतिरूप ही हैं किन्तु प्रकृति के विकारभेदरूप यानी परिमाणविशेषस्वरूप होने से, उन में - व्यक्त-अव्यक्त में भेद रहता है तो इस में कोई विरोध नहीं है। तथ्य यह है कि ये सभी विकार त्रैगुण्यमय होने से तत्त्वत: प्रकृतिमय ही होते हैं । तथापि विकारसृष्टि में जो वैचित्र्य पाया जाता है वह, सत्त्व-रजस्-तमस् गुण किसी में कोई उत्कट तो कोई अनुत्कट होने के कारण, होता है । इसी वजह बुद्धि आदि तत्त्वों में भेद होता है जिस का त्रिगुणात्मक प्रकृति से अभेद होने में कुछ भी विरोध नहीं है । कहने का तात्पर्य यही है कि कार्य, उत्पत्ति के पूर्व भी कारणतत्त्व में मौजूद रहता है, कारणव्यापार से सिर्फ उस का आविर्भाव होता है । सांख्यदर्शन सत्कार्यवादी है ।
★ सत्कार्यवादसाधक हेतुश्रेणि★ प्रश्न : यह कैसे जाना जाय कि उत्पत्ति के पूर्व भी कार्य सत् यानी विद्यमान होता है ?
उत्तर : ऐसा जानने के लिये बहुत से हेतु हैं। ईश्वरकृष्ण ने 'असदकरणात्' इस कारिका ९ में ५ हेतु बताये हैं।
(१) पहला हेतु है असत् का अकरण जो सत्कार्यवाद की सिद्धि के लिये प्रयुक्त है, उस का समर्थन इस प्रकार किया गया है - अगर उत्पत्ति के पूर्व कार्य अपने कारणतत्त्व में तनिक भी विद्यमान न हो तो कोई भी उस कार्य को करने के लिये सक्षम न हो पाता, जैसे गगनकुसुम सर्वथा असत् है तो उसे जन्म देने
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