SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् बुद्धयहंकारादिभेदेन चानेकविधं व्यक्तमुपलभ्यते नाऽव्यक्तम्, तस्यैकस्यैव सतस्त्रिलोकीकारणत्वात् । आश्रितं च व्यक्तम् - यद् यस्मादुत्पद्यते तस्य तदाश्रितत्वात्, न त्वेवमव्यक्तम् अकार्यत्वात् तस्य । 'लयं गच्छति' इति कृत्वा लिंगं च व्यक्तम्, तथाहि - प्रलयकाले भूतानि तन्मात्रेषु लीयन्ते, तन्मात्राणि इन्द्रियाणि चाहंकारे, सोऽपि बुद्धौ, सापि प्रधाने, न त्वेवमव्यक्तम् क्वचिदपि लयं गच्छतीति । लीनं वा अव्यक्तलक्षणमर्थ गमयति व्यक्तं कार्यत्वाल्लिंगम्, न त्वेवमव्यक्तम् अकार्यत्वात् तस्य । सावयवं च व्यक्तम् शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धात्मकैरवयवैर्युक्तत्वात्, न त्वेवमव्यक्तम् तत्र शब्दादीनामनुपलब्धेः । अपि च, यथा पितरि जीवति पुत्रो न स्वतन्त्रो भवति तथा व्यक्तं सर्वदा कारणायत्तत्वात् परतन्त्रम्, नैवमव्यक्तम् अकारणाधीनत्वात् सर्वदा तस्येति । न, परमार्थतस्ताद्रप्येऽपि प्रकृतिविकारभेदेन तयोर्भेदाऽविरोधात् । तथाहि, स्वभावतस्वैगुण्यरूपेण प्रकृतिरूपा एव प्रवर्तन्ते विकाराः सत्त्वरज-तमसां त्त(तू)त्कटाऽनुत्कटविशेषात् सर्गवैचित्र्यं महदादिभेदेन न विरोत्स्यत इति कारणात्मनि कार्यमस्तीति प्रतिज्ञातं भवति । नन्वेवं कुतो ज्ञायते प्रागुत्पत्तेः सत् कार्यमिति ? हेतुकदम्बकसद्भावात् । तत्सद्भावश्च - 'असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम्' ॥ [सांख्यकारिका-९] इति ईश्वरकृष्णेन प्रतिपादितः । भेदप्रतिपादक हेतुमद० कारिका का भावार्थ इस प्रकार है - व्यक्त हेतुमत् है, अनित्य, अव्यापक, सक्रिय, अनेक, आश्रित, लिंग, सावयव और परतन्त्र है जब कि अव्यक्त इस से विपरीत है । हेतुमत् यानी सकारण, बुद्धि प्रधान से कारणशालिनी है (अर्थात् प्रधान बुद्धि का कारण है ।) अहंकार बुद्धि से कारणशाली है। पाँच तन्मात्राएँ और ११ इन्द्रियाँ अहंकार से कारणशाली हैं, और तन्मात्रा पंच भूत के कारण हैं। अव्यक्त की किसी से भी उत्पत्ति नहीं होती अत: वह निष्कारण है। तथा, व्यक्त तत्त्व उत्पत्तिधर्मि होने से अनित्य यानी विनाशी (= तिरोभावि) होता है, अव्यक्त उत्पत्तिधर्मि नहीं होने से अविनाशी है । पुरुष एवं प्रधान तत्त्व स्वर्ग - पाताल एवं अंतरिक्ष में सर्वत्र फैल कर रहे हुए हैं अत: व्यापक है किन्तु व्यक्त वैसा नहीं है अत: अव्यापक है। तथा, संसारकाल में बुद्धि-अहंकार-इन्द्रियाँ इन १३ तत्त्वों से मिल कर बने हुए सूक्ष्मशरीर का आलम्बन लेकर व्यक्त तत्त्व संचरणशील होता है - सक्रिय होता है, किन्तु अव्यक्त तो व्यापक होने से असंचारि = अक्रिय होता है। व्यक्त तत्त्व बुद्धि-अहंकार इत्यादि अनेक भेदरूप होने से अनेकविध होता है, अव्यक्त तत्त्व तो एक मात्र प्रकृति रूप हो कर भी सारे त्रैलोक्य का कारण है । व्यक्त आश्रित होता है, जो जिस से उत्पन्न होता है वह उस का आश्रित कहा जाता है, समग्र व्यक्त-वृंद मूल प्रकृति से उत्पन्न होता है किन्तु प्रकृति किसी से उत्पन्न न होने से किसी की आश्रित नहीं होती, क्योंकि वह किसी का कार्य नहीं है । व्यक्त होता है लिंगरूप, जिस का अपने कारण में लय होता है । प्रलयकाल में पंचभूत तन्मात्रा में लीन हो जाती हैं, तन्मात्राएँ और इन्द्रियाँ अहंकार में लीन हो जाते हैं, अहंकार भी बुद्धि में और बुद्धि प्रधान में लीन हो जाते हैं। प्रधान का लय किसी में नहीं होता । अथवा लिंग यानी जो लीन (=गुप्त) अव्यक्तस्वरूप अर्थ का गमन = बोधन करे, इस पक्ष में जो व्यक्त है वह कार्यात्मक लिंग बन कर अव्यक्तरूप कारण का अनुमान कराता है, अव्यक्त कार्यभूत न होने से किसी भी कारण का अनुमान नहीं कराता इस लिये वह लिंगरूप नहीं है (यद्यपि वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy