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________________ द्वितीयः खण्डः - का० - ३ अथ यदि तद्रूपा एव कार्यभेदाः कथं शास्त्रे व्यक्ताव्यक्तयोर्वैलक्षण्योपवर्णनम् [सांख्यकारिका] - ' हेतुमदनित्यमव्यापि सत्क्रियमनेकमाश्रितं लिंगम् । सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥' [१०] इति क्रियमाणं शोभते ? अत्र ह्ययमर्थः हेतुमत् = कारणवत् व्यक्तमेव । तथाहि - प्रधानेन हेतुमती बुद्धि:, अहंकारो बुद्ध्या हेतुमान्, पञ्च तन्मात्राणि एकादश चेन्द्रियाणि हेतुमन्ति अहंकारेण, भूतानि तन्मात्रैः । न त्वेवमव्यक्तम् । प्रधानपुरुषौ दिवि भुवि चान्तरिक्षे च सर्वत्र व्याप्तितया यथा वर्त्ते (ते) न तथा व्यक्तं वर्त्तत इति तदव्यापि । यथा च संसारकाले त्रयोदशविधेन बुद्धयहंकारेन्द्रियलक्षणेन करणेन संयुक्तं सूक्ष्मशरीराश्रितं व्यक्तं संसारि न त्वेवमव्यक्तम् तस्य विभुत्वेन सक्रियत्वाऽयोगात् । - वस्त्र श्याम, श्वेततन्तुओं से निष्पन्न वस्त्र श्वेत होता है - इसी तरह प्रधान त्रिगुणात्मक है इस लिये कार्यभेद भी सत्त्वरजस्तमस् गुणवाले होते हैं । बुद्धि - अहंकार तन्मात्रा इन्द्रिय- पंचभूत ये जो सांख्यमत में व्यक्त कहे जाते हैं, वे सब त्रिगुणात्मक ही उपलब्ध होते हैं इस लिये प्रधानतत्त्व से अभिन्नस्वरूप ही हैं। २९७ दूसरी बात यह है कि व्यक्त और अव्यक्त यानी महत् आदि तत्त्व एवं प्रधान एक-दूसरे से विविक्त यानी पृथकू नहीं होते किन्तु अन्योन्य सदैव मिले हुए रहते हैं । तात्पर्य 'ये सत्त्वादिगुण ( अथवा तन्मय प्रधान ) ' और 'यह महत् आदि तत्त्व' इस प्रकार अलगता को नहीं देख सकते, किन्तु जो व्यक्त है वह गुणरूप से और गुणात्मक है वही व्यक्तरूप से सर्वत्र उपलब्ध हैं। [ अविवेकि का और भी एक अर्थ है कि व्यक्त या अव्यक्त कोई भी अपने कार्य के लिये एकाकी सक्षम है किन्तु अन्योन्य मिल कर ही अपने कार्य में समर्थ होते हैं ।] तथा व्यक्त-अव्यक्त ये दोनों भोग्यस्वभाव होने से विषय कहें जाते हैं । [ ऐसा भी सां०त० कौ० में कहा विषय यानी विज्ञान से अतिरिक्त बाह्यार्थात्मक ग्राह्यस्वरूप हैं।] ये दोनों भोग्य अथवा ग्राह्यरूप है इसीलिये सर्व (सांख्याभिमत) पुरुषों के लिये भोग्य वेश्या की तरह साधारण हैं। तथा ये दोनों अचेतन हैं क्योंकि सुख-दुःख अथवा मोह का अनुभव - संवेदन उनमें नहीं होता । [ यद्यपि ये तीनों गुण व्यक्त-अव्यक्त उभयाश्रित है किन्तु उनका संवेदन उन में नहीं होता यह तात्पर्य है ।] तथा, ये दोनों प्रसवधर्मी हैं । तात्पर्य, प्रधान बुद्धि को जन्म देता है, बुद्धि अहंकार को, अहंकार तन्मात्राओं और ११ इन्द्रियों को तथा तन्मात्राएँ महाभूतों को जन्म देती हैं। व्यक्त इस प्रकार त्रैगुण्य, अविवेकि, विषय, सामान्य, अचेतन और प्रसवधर्मिता के आधार पर महत् आदि कार्यभेद प्रधानात्मक होने की सिद्धि होती है। श्री ईश्वरकृष्ण ने व्यक्त और अव्यक्त उक्त रीति से अभेदापादन के लिये साम्य का और पुरुष से भेदापादन के लिये वैषम्य का निर्देश ११वीं कारिका में किया है और प्रधान ये दोनों त्रिगुणमय, अविवेक, विषय, सामान्य, अचेतन और प्रसवधर्मी है । पुरुष इन से विपरीत यानी त्रिगुणशून्य, विवेक, अविषय, असाधारण, चेतन एवं अप्रसवधर्मी है। (सांख्यकारिका - ११) ★ व्यक्त और अव्यक्त में विलक्षणता ★ Jain Educationa International प्रश्न : कार्यभेद यदि प्रकृति से तादात्म्यभावापन्न हैं तो सांख्यकारिकाशास्त्र में व्यक्त और अव्यक्त में .' कारिका १० से विभिन्नता का प्रतिपादन कैसे शोभास्पद होगा ? ' हेतुमद ० For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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