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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___ महदादयच कार्यभेदाः प्रधानात् प्रवर्त्तमाना न कारणात्यन्तभेदिनो भवन्ति बौद्धायभिमता इव कार्यभेदाः, किन्तु प्रधानरूपात्मान एव, त्रैगुण्यादिना प्रकृत्यात्मकत्वात् । तथाहि - यदात्मकं कारणम् कार्यमपि तदात्मकमेव, यथा कृष्णैस्तन्तुभिरारब्धः पटः कृष्णः, शुक्लैः शुक्ल उपलभ्यते एवं प्रधानमपि त्रिगुणात्मकम् । तथा बुद्धयहंकारतन्मात्रेन्द्रियभूतात्मकं व्यक्तमपि त्रिगुणात्मकमुपलभ्यते तस्मात् तद्रूपम्। किंच, अविवेके(?कि), तथाहि - 'इमे सत्त्वादयः' 'इदं च महदादिकं व्यक्तम्' इति पृथक् न शक्यते कर्तुम्; किन्तु ये गुणास्तद् व्यक्तम् यद् व्यक्तं ते गुणा इति। तथा, उभयमपि विषयः भोग्यस्वभावत्वात्। सामान्यं च सर्वपुरुषाणां भोग्यत्वात् पण्यस्त्रीवत्। अचेतनात्मकं च सुख-दुःख-मोहाऽवेदकत्वात्। प्रसवधर्मि च, तथाहि - प्रधानं बुद्धिं जनयति, साऽप्यहंकारम्, सोऽपि तन्मात्राणि इन्द्रियाणि चैकादश, - तन्मात्राणि महाभूतानि जनयन्तीति, तस्मात् वैगुण्यादिरूपेण तद्रूपा एव कार्यभेदाः प्रवर्त्तन्ते । यथोक्तम् - [सां. का० ११]
त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि । व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् ॥ इति ॥
★ ईश्वरकृष्ण की कारिका का विशेषार्थ★ ईश्वरकृष्ण एक प्राचीन 'सांख्यकारिका' ग्रन्थ के प्रणेता हैं, उन्होंने इस ग्रन्थ की २२वीं कारिका 'प्रकृतेर्महान्'.... में यह दिखाया है कि “प्रकृति से महान्, उस से अहंकार, अहंकार से षोडशक गण की उत्पत्ति, तथा षोडशक अन्तर्गत पाँच तन्मात्रा से पाँच भूतों की उत्पत्ति होती है' । इस में महान् (= महत्) यह बुद्धि का ही नामान्तर है। बुद्धि यानी 'घट'..... पट' ऐसा अध्यवसाय । अहंकारतत्त्व 'मैं (= अहं) सौभाग्यशाली हूँ' अथवा 'मैं दर्शनीयरूपवाला हूँ ऐसे अनुभव में 'अहं' इस प्रकार अभिमान से अभिहित = उल्लिखित होता है। संकल्प यह मन का प्रमुख लक्षण है - उदा० किसी बच्चे ने यह सुना 'अन्य गाँव में जिमणवार है तो यह सुन कर उस बच्चे को ऐसा संकल्प सहज हो उठता है कि 'मैं भी वहाँ जाऊँगा', 'वहाँ दही मिलेगा या दुग्ध' इस प्रकार मन के संकल्पों की प्रवृत्ति होती है। बुद्धि-अहंकार और मन इन तीनों में उपरि सतह से तो ज्ञानस्वरूप ऐक्य ही दिखता है किन्तु उक्त उल्लेखों के अनुसार उन में जो भेद है वह स्पष्ट हो जाता है । महत् आदि २३ तत्त्वों में प्रधान और पुरुष तत्त्व को मिलाने से २५ तत्त्व हो गये। कहा है - "इन २५ तत्त्वों का ज्ञाता चाहे ब्रह्मचर्यादि किसी भी आश्रम में रहा हो, चाहे शिखा धारण करे या मुण्डन करे अथवा जटा धारण करे, नि:संशय वह मुक्त होता है।"
*कार्यभेद कारण से अत्यन्त भिन्न नहीं है* अब यहाँ ईश्वरकृष्ण की ११वीं कारिका के आधार पर प्रधान और महत् आदि तत्त्वों में अभिन्नता का स्थापन करने के लिये साम्य दिखाते हैं - ये जो प्रधान तत्त्व से साक्षात् अथवा परम्परा से उत्पन्न होने वाला महत् आदि कार्यवर्ग है वह अपने अपने कारणों से सर्वथा भिन्न, जैसे कि बौद्धमत में पूर्वापर क्षणों में कारण-कार्य भिन्न होते हैं, वैसा नहीं होता । बौद्धवादी असत्कार्यवादी है, जब कि सांख्यवादी सत्कार्यवादी है। सांख्यमत में वे सब कार्यभेद प्रधानतत्त्व से तादात्म्य रखने वाले ही होते हैं। कारण, प्रकृति त्रिगुणमय है तो उस की तरह वे महत् आदि भी सत्त्व-रजस्-तमस् त्रिगुणमय होने से प्रकृत्तिस्वभाव ही होते हैं । देखिये - यह नियम है कि कारण जिस स्वरूप का होता है, कार्य भी तत्वस्वरूपात्मक ही होता है। उदा० श्यामतन्तुओं से निष्पन्न
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