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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
२९५ इत्यवधारणं काल-पुरुषादिव्यवच्छेदार्थम् । 'केवलात्' इति वचनं सेश्वरसांख्योपकल्पितेश्वरनिराकरणार्थम् । 'प्रवर्तन्ते' इति साक्षात् पारम्पर्येणोत्पद्यन्त इत्यर्थः । तथाहि तेषां प्रकिया - प्रधानाद् बुद्धिः प्रथममुत्पद्यते, बुद्धेश्वाहंकारः, अहंकारात् पञ्च तन्मात्राणि शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धात्मकानि + इन्द्रियाणि चैकादशोत्पद्यन्ते - पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि श्रोत्र-त्वक्-चक्षुर्जिह्वाघ्राणलक्षणानि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणि-पाद-पायु-उपस्थसंज्ञकानि एकादशं मनश्चेति; पञ्चभ्यस्तन्मात्रेभ्यः पञ्चभूतानि - शब्दाद् आकाशः, स्पर्शाद् वायुः, रूपात्तेजः, रसाद् आपः, गन्धात् पृथिवीति । तदुक्तमीश्वरकृष्णेन [सांख्यकारिका - २२]
'प्रकृतेर्महांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि॥ ___ अत्र च 'महान्' इति बुद्धयभिधानम् बुद्धिश्च 'घटः पटः' इत्यध्यवसायलक्षणा । अहङ्कारस्तु 'अहं सुभगः' 'अहं दर्शनीयः' इत्याद्यभिधा(मा)नस्वरूपः । मनस्तु संकल्पलक्षणम्, तद्यथा - कश्चिद् बटुः शृणोति - 'ग्रामान्तरे भोजनमस्ति' इति - तत्र तस्य संकल्प: स्यात् 'यास्यामि' इति, "किं तत्र दधि स्यात्, उतस्विद् दुग्धम्' इत्येवं संकल्पवृत्ति मन इति । तदेवं बुद्धयहंकारमनसां परस्परं विशेषोऽवगन्तव्यः । महदादयः प्रधान-पुरुषौ चेति पञ्चविंशतिरेषां तत्त्वानि । यथोक्तम्___ पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः । शिखी मुण्डी जटी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः ॥[ ]
और प्रतिपादन करने वाला सांख्यदर्शन अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का आश्रय लेकर हस्ती में आया है । उन मतवादियों के अनुयायी सांख्यों (= विद्वानों) का वक्तव्य एक कारिका के द्वारा कहा गया है जिस का अर्थविवरण इस प्रकार है - अशेष यानी महत्-अहंकार आदि कार्य समुदाय की जनक और अपने से अभिन्न ऐसी शक्तियों से प्रचित यानी युक्त तथा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण की त्रिपुटी की साम्यावस्था से गर्भित जो प्रधान (= प्रकृति) तत्त्व है, सिर्फ उसी से ही महत् (= बुद्धि) आदि कार्यों के भेद-प्रभेद का सृजन होता है - यह कपिलऋषिस्थापित सांख्यदर्शन का मतनिरूपण है । कारिका में 'प्रधानादेव' यानी 'प्रधान से ही' ऐसा जो भारपूर्वक कथन है उस से काल अथवा पुरुषकार की कार्यहेतुता का व्यवच्छेद हो जाता है । तथा 'केवलात्' इस कारिकापठित पद से ईश्वरवादी सांख्य दार्शनिकों की ईश्वरकल्पना का निरसन किया है । ईश्वर, काल या पुरुष (= आत्मा) सहकार के विना एकमात्र प्रकृति से ही जगत् का सृजन होता है । मूल कारिका में 'प्रवर्त्तन्ते' इस पद का तात्पर्य है साक्षात् या परम्परया (वे कार्यभेद) उत्पन्न होते हैं ।
★सांख्यदर्शन की सृष्टि प्रक्रिया ★ निरीश्वर सांख्यवादियों ने इस प्रकार सृष्टिप्रक्रिया जताई है - प्रधान ( = प्रकृति) तत्त्व से प्रथम बुद्धि तत्त्व उत्पन्न होता है । बुद्धि से अहंकारतत्त्व उत्पन्न होता है । अहंकार से षोडशक की उत्पत्ति होती है : षोडशक में पाँच तन्मात्रा (यानी सूक्ष्मभूत) + ११ इन्द्रियाँ इन सोलह तत्त्वों का समावेश हैं। 'शब्द-स्पर्श - रूपरस- गन्ध' ये पाँच तन्मात्रा हैं । ११ इन्द्रियों में पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं श्रोत्र - त्वचा - नेत्र - रसना – घ्राण, पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं - वाचा - हस्त - पाद - पायु (= गुदा) - उपस्थ (लिंग) तथा ग्यारहवाँ मन होता है। पाँच तन्मात्राओं से एक एक से एक एक पाँच स्थूल भूत की उत्पत्ति होती है - शब्दतन्मात्रा से आकाश की, स्पर्शत० से वायु की रूपत० से तेजस् की, रसतन्मात्रा से जल की, गन्धतन्मात्रा से पृथ्वी की ।
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