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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वहारोऽप्युपपद्यतेऽभेदपक्षेऽपि । तथापि - द्वैतिनामप्यात्मा कल्पितैः प्रदेशैः सुखादिभियुज्यमानः क्वचित् सुखादियोगाद् बन्धः(द्धः) क्वचित् तद्वियोगाद् मुक्त इति दृश्यते, यथा मलीमसादर्श मुखं मलीमसम् विशुद्धे विशुद्धम् दपर्णरहितं च गम्यमानं तदुपाधिदोषाऽसंयुक्तम् । तत्रैतत् स्यात् - कल्पना प्रतिपत्तुः प्रत्ययस्य धर्मे न वस्तुव्यवहारव्यवस्थानिबन्धनम्, न खलु वस्तूनि पुरुषेच्छामनुरुन्धते, न चोपचरितात् कार्य दृश्यते, नोपचरिताग्नित्वो माणवकः पाकादिष्व(पू)पयुज्यते । एतत् परिहृतं भ्रान्तीनामपि सत्यहेतुत्वं प्रदर्शयद्भिः - 'प्रतिसूर्यश्च काल्पनिकः प्रकाशक्रियां कुर्वन् दृष्ट एवं" [ ] इति 'सर्वमेकम् सदविशेषात्' इति शुद्धद्रव्यास्तिकाभिप्रायः ।
[ अशुद्धद्रव्यास्तिक-सांख्यदर्शन-व्यवहारालम्बी नयः । अशुद्धस्तु द्रव्यार्थिको व्यवहारनयमतावलम्बी एकान्तनित्यचेतनाऽचेतनवस्तुद्वयप्रतिपादकसाङ्ख्यदर्शनाश्रितः । अत एव तन्मतानुसारिणः साङ्ख्याः प्राहुः ।।
_ 'अशेषशक्तिप्रचितात् प्रधानादेव केवलात् । कार्यभेदाः प्रवर्त्तन्ते तद्रूपा एव भावतः ॥' [त. सं. का.७]
यद् अशेषाभिर्महदादिकार्यग्रामजनिकाभिरात्मभूताभिः शक्तिभिः प्रचितं युक्तं सत्त्व-रजस्-तमसां साम्या- वस्थालक्षणं प्रधानम् तत एव महदादयः कार्यभेदाः प्रवर्त्तन्त इति कापिलाः । 'प्रधानादेव' प्रदेशभेद से उस में सुख अथवा सुखाभावादि का योग दिखता है अत: कभी सुखादिजनक कर्मों के योग से बद्ध माना जाता है और उन कर्मों के वियोग में वह मुक्त समझा जाता है । उदा० मलीन दर्पण में मुख भी विशुद्ध दिखता है और जब दर्पण ही नहीं होता तब दर्पणरूप उपाधि से आसंजित मल या मलाभाव कुछ भी नहीं दिखता।
यदि मन में ऐसा सोचे कि -- 'कल्पना तो ज्ञाता का ज्ञानगत धर्म है । (अर्थात् कोई कोई ज्ञान कल्पनानुविद्ध होता है ।) उस को कभी सत्यवस्तुव्यवहार की व्यवस्था में अधिकार नहीं होता । वस्तुस्वरूप कभी पुरुषेच्छाधीन
नाधीन नहीं होता । एक वस्तु में अन्य पदार्थ का उपचार - आरोप कर देने मात्र से वह एक वस्तु अन्यपदार्थसाध्य कार्य करने में समर्थ नहीं हो जाती । माणवक में बहुत गुस्सा होने के कारण यदि अग्नि का आरोप कर दिया जाय तो भी माणवक कभी पाकादि कार्य में अग्निवत् उपयुक्त नहीं हो जाता ।' - तो इस विचार का निराकरण, भ्रान्ति यानी भ्रान्त पदार्थ भी सत्य हेतु होता है यह दिखानेवालों ने इस तरह किया हुआ है - 'मुख्य सूर्य का गृह के भीतर दर्पण में जब प्रतिबिम्ब होता है तब उस असत्य प्रतिसूर्य से भी गृह में प्रकाशक्रिया का होना दिखता है ।' ।
विस्तृत चर्चा का सार यही है कि कहीं कुछ भी सत् से अधिक विशेषता न होने से सारा विश्व एक है । - यह शुद्ध द्रव्यास्तिक नय का अभिप्राय-विवेचन है।
★ व्यवहारलम्बी अशुद्धद्रव्यार्थिक नय★ अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय संग्रहनय से आगे बढ कर व्यवहारनय संमत अर्थ का ही समर्थन करता है । एकान्त कुटस्थ नित्य चेतन-पुरुष और दूसरा नित्य अचेतन (= प्रकृति = प्रधान) पदार्थ ऐसे पदार्थयुगल का अंगीकार * कार्याण्येव भिद्यन्तेऽन्योन्यं व्यावर्त्तन्ते इति भेदा: = कार्यभेदा:-कार्यविशेषाः ।
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