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द्वितीयः खण्डः का० - ३
न च वक्तव्यम् – ‘पादादीनामेव वेदनाधिकरणत्वात् तेषां च भेदाद् व्यवस्था युक्तेति' - यतस्तेषामज्ञत्वेन कथं भोक्तृ- त्वम् ? भोक्तृत्वे वा सुरगुरुमतानुप्रवेशः आत्मनः सद्भावेऽपि कर्मफलस्य सुखादेरनुपलम्भात् । तत्रैतत् स्यात् - अद्वैतपक्षे यथैकभेदाश्रितस्यात्मनः कालान्तरे भोगानुसन्धानम् तथा देहान्तरोपभोगस्य भेदान्तरेऽनुसन्धानं भवेत् - एतदपि न किंचित्, यतो द्वैतिनामपि पादादिप्रदेशो न प्रदेशान्तरवेदनामसंदधाति तथा क्षेत्रज्ञोऽपि कुतश्चिनिमित्तात् समारोपितभेदो न क्षेत्रज्ञान्तरवेदनामनुसंधास्यति । तथा, मणि - कृपाण - दर्पणादिषु प्रतिबिम्बानां वर्णसंस्थानान्यत्वं दृश्यते भेदाऽभावेऽपि ( एवं) मुक्त - संसारिव्य★ सुख - दुखानुभूति, बन्ध - मोक्षव्यवस्था कैसे ? ★
प्रश्न : जब आप के मतानुसार अभेद ही तात्त्विक है तो भेद के विरह में भिन्न भिन्न सुख-दुख अनुभूति कैसे हो पायेगी ? एवं बन्ध - मोक्ष की व्यवस्था कैसे होगी ?
उत्तर : कोई दोष नहीं है, तात्त्विक भेद के विरह में भी आरोपित भेद से भी सुख - दुखादि अनुभूतियों की एवं बन्ध - मोक्ष की व्यवस्था देख सकते हैं । जैसे द्वैत - वादियों के मत में एक शरीर में शरीरपरिमाणवाला अथवा व्यापक परिमाणवाला एक ही आत्मा निवास करता है, तथापि 'मेरा पैर दुःखता है' सिर में दर्द होता है' इस प्रकार एक ही आत्मा में सिर पैर के भेद से भेद का आरोपण कर के दुःखानुभूति की व्यवस्था दिखती है ।
शंका : वहाँ वेदना अधिकरण पाद - सिर ही है और वे तो एक-दूसरे से भिन्न ही हैं, आत्मा में भेदारोप क्यों करें ?
उत्तर : अरे ! पाद- सिर तो जड है वे कहाँ भोक्ता है जिस से कि उन्हें ही वेदनाश्रय माना जाय ? हाँ, यदि आप को नास्तिक बृहस्पतिमत में प्रव्रजित होना है तब शरीरावयव को भी भोक्ता मानिये । आप तो शरीर भित्र आत्मवादी हो कर भी यदि पैर - सिर को भोक्ता मानेंगे तो आत्मा विद्यमान रहने पर भी उस को उस के सुकृतादि कर्मों से सुखादि फल अनुपलब्ध रहेगा यह विपदा आयेगी ।
यदि मन में कुछ ऐसा सोचते हो कि - 'जैसे अद्वैत -अभेदवाद में एक ही विशेषाश्रित अर्थात् सदैव एकस्वरूप आत्मा कालभेद के आरोप से एक काल में कर्म उपार्जन करता है किन्तु उस का फलभोग अन्यकाल में करता है समानकाल में नहीं, तो ऐसे समानकाल में एक देह से किये हुए कर्मों का फलभोग अन्य देहधारी के देह से होने का माना जा सकता है, वहाँ कालभेद से आरोपित भेद है तो यहाँ शरीरभेद से' तो यह सोचना महत्त्वशून्य है क्योंकि द्वैतवाद में भी इतना तो नियत तथ्य है कि आत्मा एक होने पर एवं भेदारोपण कर के भी पैर आदि अवयव से कभी भी हस्तादिगत वेदना का अनुभव नहीं होता है, अर्थात् दृष्टानुसार भेदारोपण की कल्पना की जाती है तो ऐसे ही अद्वैतवाद में एक आत्मा में कैसे भी निमित्त से भेदारोपण किया जाय किन्तु एक जीव अन्य देहधारी की वेदना का अनुभव कभी नहीं करेगा ।
तथा, मुखादि एकरूप होने पर भी विभिन्न मणि, खड्ग या दर्पण में उस के प्रतिबिम्बों में भिन्न वर्ण भिन्न आकृति आदि का उपलम्भ होता है, हालाँ कि वास्तव मुख में तो वैसे कोई भेद नहीं है, तो ऐसे ही अद्वैतवाद में ब्रह्मात्मा एक होने पर भी अविद्यारूप उपाधि की महिमा से, कभी बद्ध कभी मुक्त
इस
प्रकार व्यवहारविषय हो सकता है । देखो
द्वैतवाद में भी एक शरीर में एक आत्मा होता है किन्तु कल्पित
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