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________________ २९२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् समयानां पुनरुपलभ्यमानाः समयं स्मारयन्ति समयग्रहणाथैव व्युत्पन्नानां बालादिषु प्रवृत्तिः - तेऽपि न सम्यगाचक्षते, लोकविरोधात् बाला हि रेखासु व्युत्पन्नैर्वर्णत्वेनैव व्युत्पाद्यन्ते, तथैवोपदेष्टव्यपदेशः 'अयं गकारादिः' इति प्रतिपत्तुश्च प्रतिपत्तिरभेदेनैव, एवं रेखागवयादिष्वपि द्रष्टव्यम् । तथा(यथा)ऽसत्यात् 'प्रतिबिम्बात् सत्यस्य प्रतिबिम्बहेतोर्विशिष्टदेशावस्थस्यानुमानं न मिथ्या तथा शब्दादपि नित्यादसत्यदीर्यादिविशिष्टादर्थविशेषप्रतिपत्तिर्नासत्या । अलीका अहिदंशादयः सत्यस्मरणहेतवस्तत्त्वविद्भिरुदाहृता एव, यथा सत्याद् दंशाद् मरण-मूर्छादि कार्य तथा कल्पितादपि, न तयोर्विशेषः । तस्माद् यथा दंशादेरसत्यात् सत्यकार्यनिष्पत्तिस्तथा भेदविषयात् श्रवण-मनन-ध्यानाऽभ्यासादेरसत्यादपि क्षेमप्राप्तिः । नन्वेवमभेदे व्यवस्थिते कथं सुख-दुःखोपलम्भव्यवस्था कथं वा बद्ध-मुक्तव्यवस्थेति ? नैष दोषः, समारोपितादपि भेदात् सुखादेर्व्यवस्थादर्शनात् - यथा - द्वैतिनां शरीरे एक एवात्मा सर्वगतो वा शरीरपरिमाणो वा, तस्य समारोपितभेदनिमित्ता व्यवस्था दृश्यते 'पादे मे वेदना - शिरसि वेदना' इति । के आधार पर ऐसी आकृति वाले सत्य गवयादि का स्मारक होता है । तथा ध्वनिमय वर्गों का बोधक रेखामय क-ख आदि भी वर्णत्व रूप से वर्णप्रतिपादक नहीं होते किन्तु पुरुषकृत संकेतों के अनुसार वर्गों के स्मारक होते हैं । रेखामय क-ख आदि रेखामयरूप से सत्य होने से जब संकेतज्ञों को चाक्षुष होते हैं तब सत्य वर्गों में उन के संकेत का स्मरण करवाते हैं। संकेत जाननेवाले व्युत्पन्न लोगों की बालादि विद्यार्थीयों को संकेत पढाने के लिये ही प्रवृत्ति होती है'' - यह विधान यथार्थ नहीं है क्योंकि यह विधान लोकविरुद्ध है । कारण, व्युत्पन्न पंडित बालादि विद्यार्थीयों को इस तरह संकेत नहीं पढाते कि यह रेखामय क-ख आदि 'ध्वनिस्वरूप क-ख आदि' वर्गों के बोधक हैं- किन्तु इस तरह पढाते हैं कि जो ऐसी रेखामय आकृति है वह 'क वर्ण' है 'ख वर्ण' है.. इत्यादि । उपदेशकों का उपदेश भी ऐसा ही होता है कि यह (कागज आदि पर लिखा हुआ) गकारादि वर्ण है । अध्येता या श्रोता को भी ऐसा ही अभेदावगाही बोध होता है कि 'ये (कागज पर लिखे हुए) गकारादि वर्ण हैं । इसी तरह रेखाचित्रमय गवयादि के लिये भी समझ लीजिये । और भी दृष्टान्त हैं- असत्य प्रतिबिम्बमय मुखादि से, उस प्रतिबिम्ब के हेतुभूत सत्य मुखादि की, विशिष्ट स्कन्धादि देश में अवस्थिति का अनुमान होता है जो मिथ्या नहीं होता । इसी तरह, असत्य दीर्घ ईकार, ऊकार आदि से विशिष्ट 'कवी' अथवा 'गुरू' आदि नित्य शब्दों से भी कवितासर्जक, मार्गदर्शक आदि विशिष्ट सत्य अर्थों का बोध किस को नहीं होता ? यहाँ कवि-गुरु शब्दों में इ-उ ह्रस्व होने चाहिये किन्तु वक्ता या लेखक ने दीर्घ का प्रयोग किया हो तब भी सत्य अर्थबोध होता ही है । रात्रि के तमस् में मच्छर के काटने पर भी किसी को सर्प काटने का तीव्र विभ्रम हो जाता है तो वहाँ सर्पदंश मिथ्या होने पर भी सच्चे ही मौत के आमन्त्रक हो जाता है - यह तथ्य तत्त्वज्ञों ने भी उजागर किया है। स्पष्ट है कि जैसे सच्चे सर्पदंश से मरण या बेहोशी आदि सत्य कार्य होते हैं वैसे ही कल्पित सर्पदंश से भी होता है, उन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। निष्कर्ष : असत्य सर्पदंशादि से जैसे सत्यकार्य का जन्म होता है वैसे ही भेदावलम्बि अत एव असत्य अविद्यामय श्रवण - मनन - ध्यानाभ्यास से भी क्षेम-कुशल प्राप्त होता है, इस में कुछ भी अनुचित नहीं है । * पूर्वमुद्रिते 'णाद यथैव' इति पाठः, अत्र तु लिम्बडी-आदर्शानुसारेण सम्यकपाठः । - चिहद्वयमध्यवर्ती पाठः पूर्वमुद्रिते कोठके समुपन्यस्तः, लिम्बडीआदर्शानुसारेण तु तं तथैवोपलभ्यास्माभिर्विनैव कोप्टकमुपन्यस्तः ।-सं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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