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द्वितीयः खण्ड:-का०-३ यथा बाष्पादिभावेन सन्दिह्यमानात् 'धूमः' इति गृहीताद् न तात्त्विकी दहनप्रतिपत्तिः ।
___अत्राऽभिदधति - नायं नियमः 'असत्यं न किञ्चित् सत्यं कार्यं जनयति', यथा मायाकारप्रदर्शिता माया प्रतीतेर्भयस्य च निमित्तं तथा रेखाकादीनाम् । तन(त्रै)तद्भवेत् रेखाकादि स्वरूपेण सद् न खपुष्पसदृशम्, अभेदवादिनस्तु भेदस्य खपुष्पतुल्यत्वात् कथं सत्योपायता ? नैष दोषः, सन्तु स्वरूपेण रेखाकादयः, येन तु रूपेण गमकास्तदसत्यम् । तथाहि - कादिरूपेण ते गमकाः तच्च तेषामसत्यम्कार्योपयोगरहिता तु स्वरूपसत्यता व्यर्था । किंच, अभेददृष्टयुपायोऽपि न स्वरूपेणाऽसन् यतो ब्रह्मैवास्य रूपम् तत्र ब्रह्मैवाविद्यानुबद्धं स्वात्मप्रतिपत्त्युपायः यथा रेखाकादयः 'ककारोऽयम् गवयो- ऽयम्' इत्यविद्यारूपेणैव कादीनां गमकाः ।
येप्याहुः - न रेखाकादयः कादित्वेन कादीनां गमकाः । एवं रेखागवयादयोऽपि न गवयत्वेन सत्यगवयादीनाम्, अपि तु सारूप्यात्, एवंरूपा गवयादयः सत्याः; वर्णप्रतिपत्त्युपाया अपि रेखाकादयः पुरुषसमयात् वर्णानां स्मारका; न तु तेषां वर्णत्वेन वर्णप्रतिपादकत्वम्, रेखादिरूपेण च सत्त्वाद् गृहीतसे सत्यप्राप्ति कैसे हो सकती है ? दूर से बाष्पसमूह को धूम समझ कर, उस संदेहास्पद धूम से तात्त्विक अग्नि का बोध कभी नहीं देखा जाता।
समाधान : - प्रश्न का उत्तर यह है कि, ऐसा कोई नियम नहीं है कि 'असत्य कभी सत्य कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता' । देखिये - मायावी पुरुष जो माया - इन्द्रजाल दिखाता है वहाँ असत्य माया से देखनेवाले को प्रतीति का एवं कदाचित् भय का जन्म होता है, तथा विशिष्ट आकारवाली रेखाएँ जो सत्यवर्णरूप नहीं हैं उन से सत्य क-ख आदि वर्गों का भान होता ही है ।
आशंका :- रेखांकित क-ख आदि ध्वनिरूप से सत् न होने पर भी अपने रेखामयस्वरूप से लो सत् ही होते हैं, जब कि अभेष्वादिमत में भेद तो सर्वथा गगनकुसुमवत् असत्य है तो उस से सत्य कार्य (विद्या) का जन्म कैसे होगा?
समाधान :- यहाँ कुछ भी दोष नहीं है, रेखामयस्वरूप से क-ख आदि सत्य होने पर जिस ध्वनिरूप से वे क-ख आदि का सत्य बोध करवाते हैं वह रूप तो असत् ही होता है । सुनिये :- क-ख आदि ध्वनि रूप से वे रेखामय आकृतियाँ क-ख आदि वर्गों को बोधित करती हैं, किन्तु वह रूप असत् है, अपने रेखामयरूप से वह सत्य है किन्तु यहाँ उस रूप से बोधकार्योपयोगिता न होने से वह स्वरूपसत्यता निरर्थक है।
उपरांत, 'अभेद दर्शन का उपाय अपने स्वरूप से सर्वथा असत् है' ऐसा भी नहीं है क्योंकि ब्रह्म ही उसका अपना रूप है, अत: अविद्या में अनुप्रविष्ट ब्रह्म ही अपने तत्त्व के दर्शन का उपाय है जो सत् ही है । तात्पर्य यह है कि जिस रूप से उपाय में बोधकता है वह रूप असत् होने पर भी वह उपाय सर्वथा असत् नहीं होता, इसलिये असत्य से सत्य कार्य निष्पत्ति को मानने में कोई दोष नहीं है । रेखामय क-ख आदि तथा रेखाचित्रमय गवय आदि भी उक्त रीति से असत् अविद्यामय रूप से 'यह ककार है- यह गवय है' इस प्रकार से ककारादि के बोधक होते हैं । _
*बोधकता के बदले स्मारकता, शंका-समाधान ★ जिन लोगों का यह कहना है- 'रेखामय क-ख आदि कत्व-खत्वादि रूप से क-ख आदि के बोधक नहीं होते । तथा रेखाचित्र गवयादि भी गवयत्वरूप से सत्वगवयादि का बोधक नहीं होता, किन्तु समानरूपता
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