________________
२९०
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् रूपावस्थामुपनयति" [ब्रह्मसिद्धि-पृ.१२] एवं श्रवणादिभिर्भेदतिरस्कारविशेषात् स्वगतेऽपि भेदे समुच्छिन्ने स्वरूपे संसार्यवतिष्ठते यतोऽविद्ययैव परमात्मनः संसार्यात्मा भिद्यते तनिवृत्तौ कथं न परमात्मस्वरूपता 'यथा घटादिभेदे व्योम्नः परमाकाशतैव भवत्यवच्छेदकव्यावृत्तौ ? तत्रैतत् स्यात् - श्रवणादिर्भेदविषयत्वादविद्यास्वभावः कथं वा अविद्यैव अविद्यां निवर्त्तयति ? उक्तमत्र यथा रजसा रजसः प्रशमः एवं भेदातीतब्रह्मश्रवण-मनन-ध्यानाभ्यासानां भेददर्शनविरोधित्वादविद्याया अप्यविद्यानिवर्त्तकत्वम् । तथा च तत्त्वविद्भिरत्रार्थे निदर्शनान्युक्तानि - "यथा पयः पयो जरयति स्वयं च जीर्यति, यथा विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति" [ब्रह्मसिद्धि - पृ० १२] एवं श्रवणादिषु द्रष्टव्यम् ।
स्यादेतत्-अभेदस्य तात्त्विकत्वे भेदस्याऽसत्यता, असत्यरूपश्च भावः कथं सत्यप्राप्तिसाधनम् ? स्वजन्यसाक्षात्कार के द्वारा सकल भेदप्रपंच को निवृत्त करता हुआ, स्वयं भी निवृत्त होता है। ऐसा इसलिये है कि ध्यानाभ्यास से जब श्रोतव्य-मन्तव्यभूत पदार्थों के न होने पर तो श्रवणादि भी निरर्थक होने से उदित नहीं होते, श्रवण-मननपूर्वक ध्यान का अभ्यास किया जाता है तब अपने विषयभूत प्रपंच की निवृत्ति करता
तदन्तर्गत अपना भी उपघात कर देता है क्योंकि आत्मध्यान के अभ्यास से परिशुद्ध आत्मप्रकाश का ही उदय हो जाता है ।
इस को समझने के लिये यह उदाहरण है - कतकवृक्ष के फल का चूर्ण-रज फिटकरी धुलिकणमलिन जल में डालने पर मलीन रजःकणों को नीचे बिठाता है और स्वयं भी नीचे बैठ कर जल में स्वच्छ एवं शुद्ध स्वरूप का आधान करता है । इसी तरह जब श्रवणादि से भेददर्शन निरुद्ध हो जाता है तब जीवगत भेद का भी उच्छेद हो कर जीवात्मा अपने विशुद्ध परमात्मस्वरूप में अवस्थित हो जाता है, अविद्या के प्रभाव से ही जीवात्मा और परमात्मा के बीच भेद हुआ था, अविद्या की निवृत्ति हो जाने से जीव परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। उदाहरण- घटाकाश और परमाकाश के बीच अवच्छेदक उपाधिस्वरूप घटादि से ही भेद खडा होता है, अवच्छेदक उपाधिस्वरूप घटादि की निवृत्ति (विनाश) हो जाने पर वह घटाश और परमाकाश एक हो जाते हैं।
यदि मन में ऐसी आशंका हो- श्रवणादि भी आखिर तो भेदान्तर्गत होने से अविद्यास्वरूप ही है तो अविद्या से ही अविद्या की निवृत्ति कैसे हो सकती है। इस के समाधान में कहा गया है- जैसे उक्त रज:चूर्ण से ही मलीन रजःकणों का उपशमन किया जाता है इसी प्रकार भेद से अलिप्त बह्मतत्त्व का श्रवण-मनन एवं ध्यानाभ्यास भेददर्शन के विरोधी होने से अविद्यारूप होते हुये भी अविद्या के निवर्त्तक हो सकते हैं । जैसे कि इसी त य को उजागर करने के लिये तत्त्वविदों ने ऐसे उदाहरण 'ब्रह्मसिद्धि' आदि में कहे हैं- "दग्धपान पहले पीये हुए दुग्ध को पचाता हुआ स्वयं भी पच जाता है, विष को मारने के लिये दिया गया अन्य विषस्वरूप
औषध पूर्व विष को मारता हुआ स्वयं भी नष्ट हो जाता है ।" इसी तरह श्रवणादि भी अन्तत: निवृत्त हो जाते हैं यह समझ लेना।
★ असत्य के द्वारा सत्य की प्राप्ति कैसे ? आशंका : जब अभेद ही तात्त्विक है और भेद असत्य है तो प्रश्न है कि असत्य पदार्थरूप भेद-श्रवणादि * 'घटादिषु प्रलीनेषु घटाकाशादयो यथा । आकाशे सम्प्रलीयन्ते तद्वज्जीवा इहात्मनि ।। इति गौडपादकारिका चतुर्थी- अद्वैताख्यप्रकरणे ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org