SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् "स्वाभाविकीमविद्यां तु नोच्छेत्तुं कश्विदर्हति । विलक्षणोपपाते हि नश्येत् स्वाभाविकं क्वचित् ॥ न त्वेकात्मन्युपेयानां हेतुरस्ति विलक्षणः । [ ] परिहृतमेतत् जीवानामविद्यासम्बन्धः न परात्मनः, असौ सदा प्रबुद्धो नित्यप्रकाशो नागन्तुकार्थः अन्यथा मुक्त्यवस्थायामपि नाविद्यानिवृत्तिः । यतोऽस्मिन् दर्शने ब्रह्मैव संसरति मुच्यते च, अत्रैकमुक्तौ सर्वमुक्ति प्रसंग: अभेदात् परमात्मनः, यतस्तस्य भेददर्शनेन संसारः अभेददर्शनेन च मुक्तिः अत एकस्यैव परमात्मनः परमस्वास्थ्यमापतितम् । तस्मान्न ब्रह्मणः संसारः । जीवात्मान एवाडनाद्यविद्यायोगिनः संसारिणः कथंचिद् विद्योदये विमुच्यन्ते तेषां स्वाभाविकाऽविद्याकलुषीकृतानां विलक्षणप्र २८८ - की उपस्थिति सम्भव ही नहीं है, क्योंकि उस में अद्वैतभंग हो कर द्वैत - प्रसक्ति का भय है । यदि पूछा जाय कि- सिर्फ आत्मा ही विद्यास्वभाव है, अविद्यास्वभाव अन्य वस्तु का निषेध नहीं है, विद्यास्वभाव ही आत्मभिन्न वस्तु का निषेध है, अतः ब्रह्म से अतिरिक्त अनादि कालीन अविद्यामय निमित्त की उपस्थिति का कौन इनकार करता है ? - तो इसके उत्तर में पहले ही यह कह आये हैं कि ऐसी अविद्या का, विद्यास्वभाव ब्रह्म से कोई विरोध ही सिद्ध नहीं है तो उसकी निवृत्ति कैसे संगत होगी ? यदि विरोध मानेंगे तो सारा जगत् नित्यमुक्त ही मानना होगा, क्योंकि निवृत्तिकारक विरोधिस्वरूप विद्यामय नित्य शाश्वत ब्रह्म के अनादि होते हुये विद्याविरोधी अविद्या के उदय की कतई सम्भावना ही नहीं रहती । यदि सम्भावना मानेंगे तो विरोध लुप्त हो जायेगा । ऐसा भी नहीं मान सकते कि- 'ब्रह्म से अतिरिक्त भी कोई विद्यामय आगन्तुक आ कर अविद्या का ध्वंस कर देगा- ' क्योंकि एकात्मवाद मत में ब्रह्म से पृथक् किसी विद्यामय आगन्तुक की हस्ती ही नहीं है । कहा भी है- अविद्या यदि स्वाभाविक है तो उसका (ब्रह्म की तरह ही) उच्छेद करना किसी के लिये सम्भव नहीं है । कदाचित् उस के विरोधी के आगमन से उस स्वाभाविक का भी ध्वंस होने की सम्भावना करे, किन्तु एकात्मवादि के मत में अविद्याध्वंसादि उपेयों के लिये कोई ब्रह्मातिरिक्त उपाय भी नहीं है । समाधान :- इस आशंका का परिहार कुछ लोग ऐसा कह कर करते हैं कि अविद्या को ब्रह्मस्वरूप परात्मा के साथ सम्बन्ध नहीं है किन्तु जीवात्माओं के साथ है । परात्मा तो सदा के लिये प्रतिबुद्ध अर्थात् स्फुरद् ज्ञानमय और नित्यप्रकाशी है, आगन्तुक नहीं है । यदि वह आगन्तुक होता तो प्रकाशमय न होने से, मुक्ति-अवस्था में भी उसकी अविद्या का विलय सम्भव न होता । तात्पर्य, जीव और अविद्या अनादिकल्पित होने से, जीव को औपाधिक विद्योदय होने पर अविद्या की निवृत्ति आदि की बातें असंगत नहीं है । इस ब्रह्मवादी के मत में संसार और मोक्ष ब्रह्म का होता नहीं है, किन्तु यदि होने का माना जाय तो एक जीव की मुक्ति होने पर सर्व जीवों की मुक्ति प्रसक्त हो सकती है क्योंकि एकजीवाभेदेन ब्रह्म की मुक्ति होने पर, ब्रह्म अभिन्न होने से सर्वजीव मुक्त हो जायेंगे । वास्तव में जीवात्मा को 'नाहं ब्रह्म' इत्यादि भेददर्शन के कुप्रभाव से संसार सृष्टि होती है और 'अहं ब्रह्मास्मि' इस प्रकार अभेददर्शनरूप विद्या का उदय होने पर मुक्ति होती है- यह संसार और मुक्ति यदि परमब्रह्म में मानेंगे तो महती अव्यवस्था प्रसक्त हो सकती है (एक की मुक्ति से सभी की मुक्ति), अत: ब्रह्म को संसार नहीं होता यह फलित होता है । जीवात्माओं को अवश्य अनादिकालीन अविद्या के सम्पर्क से संसारसृष्टि होती है, किन्तु जब कभी यथा तथा विद्या का उदय हो जाता है ( 'अहं ब्रह्मास्मि') मुक्ति होती है । स्वाभाविक अनादि अविद्या के कारण मलिनताप्राप्त जीवों को जब अविद्याविरोधि विलक्षणस्वभाववाली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy