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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ २८७ त्मस्वप्यस्य तुल्यत्वात् - तेष्वप्यशुद्धिर्विभ्रम एव अन्यथा तेष्वपि विशुद्धिर्दुरापैव स्यात् । अथ मुखात् कृपाणादीनाम- र्थान्तरत्वे भ्रान्तिहेतुता युक्तैव अत्र पुनर्ब्रह्मव्यतिरिक्तस्य निमित्तस्याभावात् कथं विभ्रमो युक्त इत्येतदप्यनालोचिताभिधानम्, अनादित्वेन परिहृतत्वात् । अनादित्वेऽपि चोच्छेदः शक्यत एव विधातुम् यथा भूमेरूषरस्य । ___ अथ तत्र भूव्यतिरिक्तेन संस्कारान्तरेण स्वाभाविकस्यापि तस्य निवृत्तिः, न त्वेकात्मवादिनां तद्व्यतिरिक्तः आगन्तुको विलक्षणप्रत्ययोपनिपातः सम्भवति द्वैतापत्तेः । नन्वात्मन एव विद्यास्वभावत्वात् कथमनाद्यविद्याविलक्षणप्रत्ययोपनिपातो नास्तीति उच्यते - उक्तमत्र तेन तयाभूतेनात्मस्वभावेनाविद्यायाः विरोधाभावात् विरोधे वा नित्यमुक्तं जगद् भवेत् । न हि निवर्त्तकविरोधिसमवधाने विरोधिनः कदाचिदपि सम्भवः विरोधाभावप्रसंगात् । न चात्मव्यतिरिक्त विद्यान्तरमागन्तुकमविद्यानिवृत्तिसाधनम् एकात्मवादिनस्तस्याऽयोगात् । तदुक्तम् - यदि यह पूछा जाय- 'कल्पना से जीवविभाग होता है यह मान लिया, किन्तु ये जीव भी परमार्थ से तो ब्रह्मतत्त्व से जुदा नहीं है अत एव ब्रह्माभिन्न विशुद्धस्वभावालंकृत ही हैं तो फिर उन में अविद्या को आश्रित बताना कैसे युक्त कहा जाय'- तो इसका यह उत्तर है कि बिम्ब (मूल वस्तु) स्वयं शुद्धस्वभावयुक्त होने पर भी जब कल्पना के सामर्थ्य से स्वच्छ कृपाण-दर्पण आदि में शुद्ध वस्तु मुखादि के प्रतिबिम्ब का उदय होता है तब प्रतिबिम्बाधारभूत कृपाणादि की अथवा कल्पना की कालिमा उस मुखादि को प्रभावित कर देती है इसी तरह प्रतिबिम्बित जीव में भी अविद्या की कालीमा की अशुद्धि का संपर्क होने में कुछ भी असंगत नहीं है। यदि कहें कि- 'वह तो एक विभ्रम है, वास्तव में वहाँ मुखादि के ऊपर कोई कालिमा का संपर्क होता नहीं । '-तो यह विना समझे विधान है चूँकि हम यही कहते हैं कि जीवात्माओं में भी अशुद्धि का विभ्रम ही होता है, वास्तव में जीवात्माओं ब्रह्माभिन्न होने से विशुद्ध ही है, यदि ऐसा नहीं माने तो भावि में साधना से भी जीव को विशुद्धि की अवाप्ति दुष्कर हो जायेगी। __यदि पूछा जाय- मुख और प्रतिबिम्बाधार कृपाणादि तो पृथक् पृथक् हैं इसलिये किसी तरह वहाँ कृपाण की कालिमा का प्रतिबिम्बभूत मुखादि में विभ्रम हो जाना युक्तिसंगत है, यहाँ प्रस्तुत में भेद जैसी कोई चीज ही नहीं है, सब कुछ ब्रह्म ही है तब उसके अतिरिक्त किसी भिन्न निमित्त के अभाव में, जीवात्मा में अशुद्धि के विभ्रम का होना कैसे युक्ति संगत माना जाय ? तो इसका उत्तर पहले ही हो गया है, अनादिकालीन अविद्या है वैसे ही यह अशुद्धि का विभ्रम भी अनादिकालीन है, अत: किसी प्रश्न को अवकाश नहीं है। जैसे भूमि में चिरपूर्वकालीन ऊषरादि दोषों का विनाश करके भूमि को उपजाउ बनायी जा सकती है ऐसे ही अनादिकालीन अविद्या एवं अशुद्धिविभ्रम का भी साधना से उच्छेद किया जा सकता है । * द्वैतापत्ति और उसका निराकरण ★ __ आशंका :- भूमि का ऊपर दोष नष्ट होने की बात ठीक है क्योंकि वहाँ भूमि और उसके दोषविनाश के लिये किये जाने वाले संस्कार पृथक् पृथक् चीज है, अतः संस्कार से स्वाभाविक दोष निवृत्त होते हैं । किन्तु अद्वितीय एक ब्रह्मवादी के मत में तो ब्रह्म से अतिरिक्त संस्कारस्थानीय कोई विलक्षण आगन्तुक निमित्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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