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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् दिनोऽभिदधति - "वस्तुत्वे सत्येष दोषः स्यात् नाऽसिद्धं वस्तु वस्तवन्तरसिद्धये सामर्थ्यमासादयतीति, मायामात्रे तु नेतरेतराश्रयप्रसंगः । न हि मायायाः कथंचिदनुपपत्तिः - अनुपपद्यमानार्थैव हि माया लोके प्रसिद्धा उपपद्यमानार्थत्वे तु यथार्थभावात् न माया"[ ] इति केचित् ।।
अन्ये तु वर्णयन्ति - अनादित्वात् मायाया जीवविभागस्य च बीजांकुरसन्तानयोरिव नेतरेतराश्रयदोषप्रसक्तिरत्र । तथा चाहुः "अनादिप्रयोजनाऽविद्या, अनादित्वादितरेतराश्रयदोषपरिहारः, निष्प्रयोजनत्वे न भेदप्रपञ्चसंसर्गप्रयोजनपर्यनुयोगावकाशः" [ ] । अतोऽपरैर्यत् प्रेर्यते - दुःखरूपत्वान्नानुकम्पया प्रवृत्तिः अवाप्तकामत्वान क्रीडार्था इत्येतदपि परिहतमविद्यात्वेन, यतो नासौ प्रयोजनमपेक्ष्य प्रवर्तते, नहि गन्धर्वनगरादिविभ्रमाः समुद्दिष्टप्रयोजनानां प्रादुर्भवन्ति । न च भवतु कल्पनातो जीवविभागः किन्तु तेऽपि तत्त्वतो ब्रह्मतत्त्वादव्यतिरिक्तत्वाद् । विशुद्धस्वभावा इति तेष्वपि नाऽविद्यावकाशं लभत इति वक्तव्यम्, यतो विशुद्धस्वभावादपि बिम्बात् कल्पनाप्रदर्शितं कृपाणादिषु यत् प्रतिबिम्ब तत्र श्यामतादिरशुद्धिरवकाशं लभते एव । अथ - 'विभ्रमः स इति न दोषः' - असदेतत् जीवा
तो इसके उत्तर में ब्रह्मवादी यह कहते हैं- “यदि जीवभेद और कल्पना ये वास्तविक पदार्थ हो तब तो ऐसा दोष कहना ठीक है, किन्तु यहाँ तो जीवभेद एवं कल्पना वस्तु ही असिद्ध है । असिद्ध वस्तुरूप जीवभेद या कल्पना, पारमार्थिकवस्तुस्वरूप कल्पना या जीवभेद की सिद्धि के लिये समर्थ ही नहीं होती । किन्तु यह सब जीवभेद या कल्पना माया का ही प्रपंच है इसलिये अन्योन्याश्रय दोष यहाँ दूषणरूप नहीं है । जब यह माया का प्रपंच है- ऐसा कह दिया तो अब किसी भी प्रकार की असंगति भी नहीं है, माया स्वयं ही मूल में असंगत पदार्थ के रूप में लोगों में प्रसिद्ध है । यदि उसका कोई युक्तिसंगत स्वरूप होता तब तो लोग उसे ब्रह्म की तरह यथार्थ ही क्यों न मान लेते ? और यथार्थ होने पर उसे 'माया' शब्द से कौन सम्बोधित करता ?" -- कुछ ब्रह्मवादियों का यह उत्तर है।
★ अनादि एवं निष्प्रयोजन अविद्या* अन्य अद्वैतवादियों का समाधान यह है कि माया (अर्थात् उससे पैदा होने वाली कल्पना भी) तथा जीवविभाग ये दोनों ही अनादिकालीन है । जैसे बीज से अंकूर और अंकूर से बीज यह परम्परा अनादिकालीन होने से वहाँ अन्योन्याश्रय दोषरूप नहीं है वैसे ही माया (अथवा कल्पना) एवं जीवविभाग भी अनादि काल से परस्पराश्रित होने में कोई दोष नहीं है । कहा गया है कि 'अविद्या अनादि है, उपरांत उसकी प्रवृत्ति प्रयोजनाधीन नहीं किन्तु स्वतन्त्र है । अनादि होने से अन्योन्याश्रय दोष का परिहार हो जाता है और निष्प्रयोजन में अविद्या के प्रयोजन की गवेषणा का प्रश्न निरवकाश हो जाता है । इसलिये अन्य दार्शनिकों ने जो ये दोष थोपे हैं'संसार दुःखरूप है इसलिये अनुकम्पा करुणा से दु:खमय संसार के सर्जन की प्रवृत्ति उचित नहीं । तथा परमेश्वर तो कृतकृत्य होता है इसलिये खेल-खेल में जगत् का सर्जन करे यह भी सम्भव नहीं' - ये दोनों दोष अनादिनिष्प्रयोजन अविद्यामूलक प्रपंचसृष्टि के मत में निरस्त हो जाते हैं । कुछ प्रयोजन रहे तभी लोगों को गन्धर्वनगर आदि का विभ्रम पैदा हो ऐसा नहीं है, विना प्रयोजन ही लोगों को अपने नगर के ऊर्ध्वगगन में नया एक गन्धर्यों का नगर बस गया हो ऐसा गन्धर्वनगरविभ्रम सभी नगरवासियों को कभी पैदा हो जाता है । ऐसे ही विना प्रयोजन ही अविद्या की अनिर्वचनीय शक्ति से प्रपञ्च का विभ्रम पैदा हो सकता है ।
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