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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् मावेशाऽयोगात्, अविरोधे विद्यया नाऽविद्याव्यावृत्तिः ।
अत्राहुः - नाविद्या ब्रह्मणोऽनन्या, नापि तत्त्वान्तरम्, न चैकान्तेनाऽसती, एवमेव इयमविया माया मिथ्याभास इत्युच्यते । वस्तुत्वे तत्त्वाऽन्यत्वविकल्पावसरः, अत्यन्ताऽसत्त्वेऽपि खपुष्पवद् व्यवहारानङ्गम्, अतोऽनिर्वचनीया सर्वप्रवादिभिश्चैवमेवाभ्युपगन्तव्या । तथाहि - शून्यवादिनो यथादर्शनं सत्त्वे नाऽविद्या, खपुष्पतुल्यत्वे न व्यवहारसाधनम्, सदसत्यक्षस्तु विरोधाघ्रात इत्यनिर्वचनीयाऽविद्या । ज्ञानमात्रवादिनो यथा प्रतिभासज्ञानसद्भावे न बाह्यापहवः घटादेराकारस्य ग्राहकाकाराद् विच्छेदेनाऽवभासमानस्यापहवायोगात्, अत्यन्ताऽसत्त्वे बहिरवभासाऽभावात् खपुष्पादेरिव, उभयपक्षस्य चासत्त्वम् विरोधात् । बाह्यार्थवादिनामपि रजतादिभ्रान्तयोऽवभासमानरूपसद्भावानाऽविद्यात्वमश्नुवीरन्, अत्यन्तासत्त्वे न तनिबन्धनः कश्चिद् व्यवहारः स्यात्, सदसत्पक्षस्तु कृतोत्तरः । तत्रैतत् स्यात् - अवभासमानं रूपं तत्र मा भूत् ग्राहकाकारस्तु सन्नेव नासावविद्या - असदेतत्, ग्राह्याकारसत्त्वे च तदवभासोऽपि ब्रह्म तो नित्य प्रबोधस्वरूप है तो उसका विपरीतग्रहण भी कैसे उदित होगा ?, ब्रह्म से तो अलग कोई चीज ही नहीं है तो उस अन्य चीज के रूप में ब्रह्म का विपरीतग्रहण कैसे हो सकता है ? तथा ब्रह्म तो विद्यास्वभावमय है, अविद्यास्वभावता तो उसका विरुद्धधर्म है, विरुद्धधर्मों का एकस्थान में समावेश होता नहीं, इसलिये ब्रह्म में अविद्यास्वभावता का सम्भव ही नहीं । यदि ये दो धर्म परस्पर अविरुद्ध है ऐसा मानने जायेंगे तो विद्या से अविद्या की निवृत्ति नहीं हो पायेगी । इस आशंका के उत्तर में सदद्वैतवादी कहते हैं -
★ अविद्या मीमांसा और उसकी निवृत्ति ★ अविद्या न तो ब्रह्मसे अभिन्न है न भिन्न होते हुये तत्त्वान्तररूप है तथा एकान्तत: असत् भी नहीं है, अत एव उसे अविद्या, माया अथवा मिथ्याभास कहा गया है । वह वस्तुभूत नहीं है इस लिये 'ब्रह्मात्मक है या ब्रह्मभिन्न' इन विकल्पों को अवसर नहीं मिलता । यदि अत्यन्त असत् मानी जाय तो गगनकुसुमवत् वह व्यवहार-अन्तर्भूत भी नहीं हो सकेगी । तो क्या है ? इस का उत्तर है कि वह अनिर्वचनीया यानी शब्दातीतस्वरूप है। सर्वमतवादियों के लिये यह तथ्य स्वीकार करने योग्य है. देखिये- शन्यवाद में देखा जाय तो यहाँ सर्व होते हये जो जैसा दिखाई दे उसकी उस रूप में काल्पनिक सत्ता मानी जाती है (वास्तव में तो कुछ भी पारमार्थिक सत् नहीं है) तो वैसे ही दिखावे के अनुसार उसे काल्पनिक सत् तो मानना होगा, किन्तु फिर उसे (मिथ्याभास के अर्थ में) अविद्या यानी मिथ्या नहीं कह सकेंगे । यदि गगनकुसुमवत् असत् मानेंगे तो उसका व्यवहार असंगत हो जायेगा । सद्-असत् उभयपक्ष में विरोध की बदबू आयेगी, अन्तत: अविद्या को अनिर्वचनीय मानना होगा । विज्ञानवादियों के मत में ज्ञान जैसा स्फुरित होता है (उदा० बाह्यार्थावभासि) ऐसा मान लेने पर बाह्यार्थ का तिरस्कार नहीं हो सकेगा, क्योंकि ज्ञानगत ग्राहकाकार से अतिरिक्त ग्राह्यरूप में बाह्य घटाकार भासित होता है उसका अपलाप नहीं हो सकता । यदि बाह्यार्थ को अत्यन्त असत् मानेंगे तो गगनकुसुमवत् उसका बाह्यरूप से अवभास नहीं होगा । उभय पक्ष तो विरोध के कारण व्याहत ही है, अत: अन्तत: अविद्या को अनिर्वचनीय कहना होगा । बाह्यार्थवादियों के मत में, रजतादिभ्रान्तियों में जो रजतादि अवभासमान हैं वे यदि सद् भूत हैं तो उन भ्रान्तियों में अविद्यात्व यानी मिथ्यात्व नहीं संगत होगा । यदि वह रजतादि अत्यन्त
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