________________
द्वितीयः खण्ड:-का०-३
२८३
अथापि स्यात् - न बमोऽनादे!च्छेदः, किन्तु नित्यस्य ब्रह्मणः किमविद्यास्वभावः आहोस्विद् अन्यथा ? न तावत् स्वभावः ब्रह्मणस्तद्विपरीतविद्यास्वभावत्वात्, अर्थान्तरत्वे तस्यास्तत्त्वतः सद्भावे नोछेदः द्वैतप्रसंगश्च । अथ मतम् - 'अग्रहणमविद्या, सा कथमर्थान्तरम् ! न चाऽनिवर्त्या सर्वप्रमाणव्यापाराणामग्रहणनिवृत्त्यर्थत्वात्'- तदयुक्तम्, तत्त्वाऽग्रहणस्वभावा अविद्या तत्त्वग्रहणस्वभावया विद्यया निवर्खेत, सा तु नित्या ब्रह्मणि, न च ब्रह्मणोऽन्योऽस्ति यस्य तत्त्वाऽग्रहणं ब्रह्मणि प्रयत्नलभ्यया विद्यया निवात, ब्रह्मणि तु युगपद् ग्रहणाऽग्रहणे विप्रतिषिद्धे, अविरोधे वा न विद्यया तत्त्वाऽग्रहणव्यावृत्तिः । यस्य त्वन्यथाग्रहोऽविद्या तस्य ब्रह्मणः तदतत्स्वभावत्वे उक्तं दूषणम् - तत्स्वभावत्वे तद्वदनिवृत्तेः, अर्थान्तरत्वे द्वैतापत्तिः । नित्यप्रबुद्धत्वे च ब्रह्मणः कस्यान्यथात्वग्रह इति वाच्यम् तद्वयतिरिक्तस्यान्यस्याऽसत्त्वात्, तस्य च विद्यास्वभावत्वाद् न तद्विपरीताऽविद्यास्वभावता विरुद्धधर्मसयदि सचमुच अविद्या जैसा कुछ वास्तव हस्ती में होता तब तो उसके स्वरूप की निवृत्ति करने में कौन सक्षम है ? ब्रह्म की हस्ती है तो उसकी निवृत्ति जैसे अशक्य है इसी प्रकार अविद्या यदि हस्ती में है तो उसकी भी निवृत्ति अशक्य है । ऐसा नहीं है कि सिर्फ हम ही मुमुक्षुओं के पुरुषार्थ को अविद्या-निवर्त्तक दिखलाते हैं, सभी मतवादियों ने मुमुक्षुप्रयत्न को अतात्त्विक एवं अनादि अविद्या का उच्छेदक दिखलाया है, अत: किसी प्रश्न को अवकाश नहीं है ।
★ अविद्यानिवृत्ति के असम्भव की आशंका ★ यदि ऐसी आशंका की जाय
हम यह कहना नहीं चाहते कि अविद्या अनादि होने से उसका उच्छेद नहीं होता । अनादि अविद्या का उच्छेद तो प्राय: सर्ववादिमान्य है, किन्तु हम यह पूछना चाहते हैं कि अद्वैतवाद में ब्रह्म नित्य है तो अविद्या उसका स्वभावरूप है या विपरीत यानी स्वभावबाह्य अर्थान्तर है ? ब्रह्म का ही स्वभावरूप अविद्या हो नहीं सकती, क्योंकि ब्रह्म-स्वभाव तो विद्यामय है इस लिये उसकी विरोधी अविद्या ब्रह्म-स्वभावरूप नहीं हो सकती । यदि अविद्या ब्रह्म से भिन्न अर्थ है तो वास्तविक सत्स्वरूप होते हुए उसका उच्छेद नहीं हो सकेगा एवं 'ब्रह्म-अविद्या' द्वैत की आपत्ति होगी । यदि ऐसा मानें कि- 'अविद्या 'ब्रह्म का अग्रहण-अस्फुरण' रूप है तो अर्थान्तर और द्वैतापत्ति कैसे ? और ऐसी अविद्या अनिवर्त्य हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि समस्त प्रमाणों का यही व्यापार है- अग्रहणरूप (अज्ञान या अस्फुरण रूप) अविद्या की निवृत्ति करना ।'- तो ऐसा मानना अयुक्त है । कारण, तत्त्वग्रहणस्वभाव विद्या तत्त्वअग्रहणस्वरूप अविद्या की अत्यन्त विरोधिनी है, और ब्रह्म में तत्त्वग्रहणस्वभाव विद्या अनादिकालीन नित्य होने से सदा मौजूद है उसके होते हुए विरोधि तत्त्वअग्रहणस्वरूप अविद्या की हस्ती ही कैसे हो सकती है? ब्रह्म एक है उस में ग्रहणस्वरूप विद्या और अग्रहण स्वरूप अविद्या गोत्व तरह परस्पर विरुद्ध होने से दो में से एक ही हो सकती है । यदि इन में विरोध होने का नहीं मानेंगे तब तो विद्या से तत्त्वअग्रहणरूप अविद्या की निवृत्ति शक्य ही नहीं होगी । तथा जिस वादी के मतमें अग्रहणस्वरूप नहीं किन्तु अन्यथा(=विपरीत)ग्रहण स्वरूप अविद्या मानी गयी है उस वादी के मत में भी दो विकल्प हैं कि यह अविद्या ब्रह्म का स्वभाव है या स्वभावबाह्य अर्थान्तररूप है ? यदि स्वभावरूप है तो ब्रह्म की जैसे निवृत्ति नहीं होती वैसे अविद्या की भी निवृत्ति नहीं होगी । और यदि अर्थान्तररूप है तो द्वैत प्रसक्त होगा । उपरांत,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org