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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रत्यक्षाभावेऽनुमानस्यापि न भेदग्राहकत्वेन प्रवृत्तिः तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्, अनुमानपूर्वकत्वे इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। तन कुतश्चित् प्रमाणाद् भेदसिद्धिः । न च(चा)प्रमाणिका वस्तुव्यवस्था अतिप्रसंगात्।
न चात्रेदं प्रेरणीयम्- 'सल्लक्षणमेकं ब्रह्म विद्यास्वभावं चेत् न किंचिनिवर्त्यम् अवाप्तव्यं वा भवेत् ततश्च तदर्थानि शास्त्राणि प्रवृत्तयश्च तत्प्रयोजना व्यर्थाः स्युरविद्याया अभावात् द्वितीयस्याः । अविद्यास्वभावत्वे वा न सत्त्वम् नापि ब्रह्मरूपता' । - यतो नाऽविद्यास्वभावं ब्रह्म, नापि विद्यास्वभावत्वे शास्त्राणां प्रवृत्तीनां च वैयर्थ्यम्, अविद्याया व्यापारनिवर्त्यत्वात् । न त्व(न्व)विद्या नैव ब्रह्मणोऽन्या तत्त्वतोऽस्ति अतः कथमसौ यत्ननिवर्त्तनीयस्वरूपा ? अत एव, तस्यास्तत्त्वतः सद्भावे कः स्वरूपं निवर्त्तयितुं शक्नुयात् ? न चाऽस्माकमेव पुरुषप्रयत्नोऽविद्यानिवर्त्तको मुमुक्षूणाम् किन्तु सर्वत्र प्रवादेष्वतात्त्विकाऽनायविद्योच्छेदार्थो मुमुक्षुयत्नः । अनुसार भेदग्रहण के लिये प्रतियोगी का स्मरण अपेक्षित है किन्तु वही भेदग्रहण के विना असम्भव है, एवं प्रतियोगी के स्मरण के विना भेद-साधक अभावप्रमाण का अवतार अशक्य हैं; इस प्रकार दोनों परस्पराश्रित हो जाने से अन्योन्याश्रय दोष क्यो नहीं होगा ?!
उपरोक्त ढंग से जब प्रत्यक्ष से भेदसिद्धि कठिन है तब अनुमान की तो भेदग्रहण के लिये प्रवृत्ति होने की आशा ही नहीं रहती, क्योंकि अनुमानप्रवृत्ति प्रत्यक्ष होने पर निर्भर होती है । यदि अनुमान प्रवृत्ति के बल से ही प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति साधी जाय तो प्रत्यक्ष प्रवृत्ति और अनुमान प्रवृत्ति में अन्योन्याश्रय दोष होगा । निष्कर्ष, किसी भी प्रमाण से भेद सिद्ध नहीं होता । प्रमाण के विना किसी भी वस्तु की व्यवस्था शक्य नहीं, फिर भी अप्रामाणिक वस्तु का आग्रह किया जाय तो शशसींग की भी सिद्धि विना प्रमाण से हो जाने की आपत्ति हो सकती है।
★ मुमुक्षुप्रयत्न अविद्या का निवर्त्तक ★ यहाँ ऐसा मत कहना - "सत् स्वरूप एक ब्रह्म ही है, और कुछ है ही नहीं, तो वह ब्रह्म विद्यास्वभाव है या अविद्यास्वभाव ? यदि विद्यास्वभाव ही है तो न उस में से किसी की निवृत्ति कर्त्तव्यशेष रहती है न तो कुछ प्राप्ति शेष रहती है, अत: अविद्यादि की निवृत्ति के लिये अथवा तो विद्यास्वभाव ब्रह्म की प्राप्ति के लिये रचे गये शास्त्र व्यर्थ हो जायेंगे । एवं ब्रह्मप्राप्ति या अविद्यानिवृत्ति के प्रयोजन से की जाने वाली प्रवृत्तियाँ भी निरर्थक हो जायेंगी, क्योंकि ब्रह्म के अलावा और कोई अविद्या जैसी द्वितीय चीज ही नहीं है । यदि ब्रह्म अविद्यास्वभाव है तो मिथ्यात्व प्रसक्त होने से न तो सत्स्वरूप होगा, न ब्रह्मस्वरूप होगा ।''- इस प्रकार का विधान इस लिये अनुचित है कि ब्रह्म अविद्यास्वभाव नहीं है, एवं विद्यास्वभाव होने पर शास्त्र और प्रवृत्ति की व्यर्थता का प्रसंग भी नहीं है । कारण, विद्यास्वभावब्रह्मपक्ष में, अविद्या की निवृत्ति के लिये पुरुषार्थ की सार्थकता है और उसके लिये उपदेश करने वाला शास्त्र भी सार्थक है।
प्रश्न :- ब्रह्म अद्वितीय है, वास्तव में ब्रह्म से भिन्न कुछ भी अविद्या जैसा हस्ती में नहीं है तब पुरुषार्थ से उसकी निवृत्ति कैसे कही जाय ?
उत्तर :- [अत एव...] ब्रह्म से भिन्न अविद्या तत्त्वत: नहीं है इसी लिये उसकी निवृत्ति होती है । * 'स्फुरद्विद्यायाः (१) प्रभावात्' इति पूर्वमुद्रिते पाठः, तत्रैव टीप्पण्या पूर्वसम्पादकयुगलेन शुद्धपाठकल्पना सूचिता । अत्र तु लिम्बडी० आदर्शानुसारेण पाठशुद्धिरुपन्यस्ता।
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