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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ २८१ ग्रहण एव व्यापारवद् युक्तम् ? न च निश्चयस्यापि स्मरणादन्यस्तनिश्चयः ततो निश्चयात् स्मरणभेदाsनिश्चयः ] इति न न्यायसंगतमेतत् । तस्मान पूर्वाऽपरयोर्भेदग्रहणं दर्शन-स्मरणविशेषादपि । न च समानकालप्रतिभासयोर्नीलपीतयोरितरेतराभावग्रहणे भेदग्रहणं सम्भवति अभावप्रमाणस्येतरेतराश्रयत्वेनानवतारात् । तथाहि - [श्लो० वा० ५.२७ अभाव.] "गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम्। मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥” इति तस्य लक्षणम्। न च ग्रहणमन्तरेण प्रतियोगिस्मरणम्, न च प्रतियोगिस्मरणमन्तरेण भेदसाधकाभावप्रमाणावतार इति कथं नेतरेतराश्रयदोषः ? भेदग्राहक ___ उत्तर :- ऐसा नहीं हो सकता । बाह्य नीलादि का प्रतिभास तो माया अथवा अविद्या से जनित होता है इसलिये उसको असत् मानना वाजिब है। किन्तु ज्योतिस्वरूप का अनुभव अविद्याजनित नहीं, शुद्ध विद्या से जनित है अत: वह असत् नीलादि से विपरीत यानी सत् रूप ही मानना उचित है । निष्कर्ष, प्रत्यक्ष से अथवा पूर्वोक्त रीति से स्मृति से भी भेद का संवेदन असिद्ध है। ★ दर्शन-स्मरण की मिलित सामग्री से भेदवेदन अशक्य * आशंका :- दर्शन और स्मरण की जोड यह ऐसी सामग्री है जो अलग-थलग रह कर भेदवेदनरूप कार्य नहीं कर सकते थे लेकिन मिल कर एक सामग्री बन कर कर सकते हैं। __उत्तर :- यह प्रकल्पना भी गलत है। कारण, सामग्री कार्य को जन्म दे सकती है किन्तु अप्रसिद्ध वस्तु को आत्मस्वरूप का प्रदान नहीं कर सकती । अर्थात् भेदवेदनात्मकता का आधान किसी भी वेदन में सामग्री से शक्य नहीं । प्रत्यक्ष या स्मरण तो भेदाग्रहणस्वरूप है नहीं, और उन से अतिरिक्त भी कोई भेदग्रहण प्रसिद्ध नहीं जिसका सामग्री से उदय या आविर्भाव किया जा सके । यदि ऐसा कहें कि- भेददर्शनस्वरूप दर्शन की उत्पत्ति सामग्री से मत मानो किन्तु विकल्पात्मक निश्चय तो सामग्री से उत्पन्न हो सकेगा। - तो यह भी अयुक्त है चूँकि दर्शनात्मक ग्रहण के विना निश्चय के प्रादुर्भाव की सम्भावना ही नहीं है। [ उपरांत, ग्रहण (यानी दर्शन) स्मरण की सहायता से भेद के ग्रहण में सव्यापार नहीं होता । ग्रहण के लिये ग्रहण ही सव्यापार कैसे हो सकता है ? तथा स्मरण भी ग्रहण की सहायता से भेदग्राही नहीं हो सकता क्योंकि निश्चय का निश्चय तो स्मरण से भिन्न नहीं होता और स्मरण तो पूर्ववस्तुग्राही होता है अत: स्मरण से भी भेदनिश्चय की शक्यता नहीं है। इसलिये दर्शन(ग्रहण) और स्मरण भेदनिश्चय के लिये सव्यापार होने की बात न्यायसंगत नहीं है। ] सारांश, पूर्व-अपर रूप से अभिमत पदार्थों के भेद का ग्रहण दर्शन और स्मरण की मिलित सामग्री से होने का सम्भव नहीं है। आशंका :- जब नील-पीत का प्रतिभास समानकाल में होता है तब दोनों में एक-दूसरे के अभाव का भी ग्रहण होता है और उस से भेदग्रहण हो जाता है। उत्तर :- ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष के कारण यहाँ अभावप्रमाण सावकाश नहीं है । अभाव प्रमाण का लक्षण श्लोकवार्त्तिक में ऐसा बताया है- “(आश्रयात्मक) वस्तु के सद्भाव का ज्ञान और प्रतियोगी का स्मरण होने पर इन्द्रियनिरपेक्ष ही मानसिक अभावज्ञान हो जाता है ।"- इस लक्षण के [ ] व्याख्या में [ ] वाला पाठ अशुद्ध होने के कारण यहाँ उसका विवरण भी हमने कौंस में रखा है। यद्यपि विवरण में शब्दश: नहीं किन्तु तात्पर्य का अनुवाद करने का प्रयास किया गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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