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________________ २८० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् भेदवादिनोऽसिद्धा' इति वक्तुं शक्यम् सन्मात्रोपलब्धेः सर्वत्र सद्भावेन परस्परानुप्रवेशोपलब्धेरनुप्रसिद्धेः । तथाहि - अस्ति तावदयं प्रतिभासः अत एवाऽद्वैतमस्तु, न पत्र भेदप्रतिभासः, नापि भेदाभेदप्रतिभासः अपि त्वभेदप्रतिभास एव बहिर्नीलादेर्भिन्नस्य भिन्नाभिन्नस्य चाऽयोगात् । अथ अभिन्नस्यापि बहिर्नीलादेरयोगः तर्हास्तु ज्योतिर्मात्रं प्रकृतिपरिशुद्धं परमार्थसत् तत्त्वम् । न च नीलादेवहीरूपतया प्रतिभासमानस्यापि असत्त्वे ज्योतिर्मात्रस्यापि परमार्थसतत्त्वरूपस्याऽसत्त्वमस्तु इति वक्तुं शक्यम्, नीलादेरविद्यावेद्यत्वेनाऽतत्त्वरूपव्यवस्थितेः ज्योतिर्मात्रस्य तु विद्यावेद्यत्वेन तद्विपर्ययरूपत्वेनावस्थानात् । तत्र प्रत्यक्षतः कथमपि भेदवेदनम्, स्मरणाद् वा उक्तन्यायेन । अथ सामग्री सा तादृशी दर्शन-स्मरणरूपा यतः प्रत्येकावस्थाऽसम्भवि भेदवेदनाख्यं कार्यमुदयमासादयति । असदेतत् यतःसामग्यपि कार्यजनने समर्था नात्मस्वरूपप्रादुर्भावे भेदवेदनलक्षणे । न च स्मरणप्रत्यक्षव्यतिरिक्तमपरं भेदग्रहणम् येन सामग्री तद् जनयेत् । अथ भेदनिश्चयजनने द्वयं व्याप्रियते, तदयुक्तम्, ग्रहणमन्तरेण निश्चयस्याऽयोगात् । [ ग्रहणं च न भेदव्यापारवत् स्मरणसहायम्, ग्रहणं कथं प्रतीति नहीं होती, किन्तु एक देश की अन्य देश से, एक काल की अन्यकाल से, एक सन्तानाकार की अन्य सन्तानाकार से परिहारीरूप में यानी पृथक् रूप में प्रतीति होती है। अत: भेद सिद्ध है। ★ 'सर्वं सत्' प्रतीति से अभेद सिद्धि शक्य★ उत्तर :- यह विधान गलत है, अद्वैतवादी के मत में 'सर्वं सत् = सब कुछ सत्स्वरूप है' ऐसी ही प्रतीति होती है, एक-दूसरे से पृथक्ता की प्रकाशक कोई उपलब्धि ही अद्वैतवाद में प्रसिद्ध नहीं है। आशंका :- द्वैतवादी के मत में एक-दूसरे की एक दूसरे में अन्तर्भाव रूप में यानी अभेदप्रकाशक उपलब्धि असिद्ध है। अत: अभेदसिद्धि नहीं हो सकेगी। उत्तर :- यह विधान भी गलत है, क्योंकि 'सर्वं सत्' ऐसी प्रतीति सर्वमान्य है। यही प्रतीति भेदरूप से प्रतिवादी को अभिमत सभी पदार्थों में सत्रूप से एक-दूसरे में अन्तर्भाव की प्रतीतिरूप है क्योंकि 'सत्' में प्रतिवादी को अभिमत विशेषमात्र का अन्तर्भाव मान्य है। 'सर्वं सत्' ऐसी प्रतीति-प्रतिभास के बारे में किसी को भी विवाद नहीं है इस लिये इसी प्रतिभास से अद्वैत तत्त्व स्पष्ट हो जाता है । 'सर्वं सत्' इस सर्वमान्य प्रतीति में न तो भेदप्रतिभास है, न भेदाभेदप्रतिभास है, किन्तु अभेद प्रतिभास ही है, क्योंकि बाह्य नीलादि न तो भिन्न रूप से भासित होते हैं, न भिन्नाभिन्न रूप से किन्तु अभिन्न-अखंडरूप में भासित होते हैं इसलिये उस को भिन्न या भिन्नाभिन्न के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। आशंका : अभिन्नरूप से भी नीलादि भासित नहीं होते अत: नीलादि का अभिन्न के साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं है। ____उत्तर : नहीं है तो बाह्य नीलादि को मत मानो, प्रकृति से अत्यन्त निर्मल प्रकाशनस्वरूप ज्योति ही पारमार्थिक सत् तत्त्व मानो, अद्वैत अनायास सिद्ध होगा। आशंका : बाह्यरूप से प्रतिभास होनेवाले नीलादि को जब सत् नहीं मानना है तो आन्तररूपसे प्रतिभास होने वाले, जिसको आप परमार्थ सत् मानना चाहते हैं, उस ज्योतिस्वरूप को भी सत् मत मानो। [ ] अयं पाठः किंचिदशुद्ध इव प्रतिभासते। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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