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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
२७९ किंच, नीलादेरपि स्थूलावभासिनोऽनेकदिक्सम्बन्धात् परमाणुरूपतया व्यवस्थापनात् स्वरूपभेदः स्यात्, पुनर्नीलादिपरमाणूनामपि भिन्नदिक्सम्बन्धात् स्वरूपभेदः भवेत् तथा चानवस्थानात् न भेदस्थितिः । भेदो हि कस्मिंश्चिदेकरूपे सिद्धे तद्विपर्ययात् स्वरूपस्थितिमासादयेत्, न चानन्तरेण न्यायेन किश्चिदप्येकं सिद्धम् परमाणोरप्यभेदासिद्धर्भवदभ्युपगमेन । न च नीलस्वरूपं सुखाद्यात्मतया नानुभूयत इति भेदवद् अभेदस्यापि प्रत्यक्षतोप्रसिद्धिः, यतो नीलादिप्रतिभासस्य भेदाऽवेदनमेवाऽभेदवेदनम् । अथ नी. लादीनामात्मस्वरूपाऽवेदनमेव भेदवेदनमिति परेणापि वक्तुं शक्यत एव ततश्च कः स्वपरपक्षयोर्विशेषः ? तथाहि - न देश-कालसन्तानाकारैरेकत्वं जगतः प्रतीयते, परस्परोपलम्भपरिहारेण देशादीनां प्रतिभासनात् । असदेतत् अन्योन्यपरिहारेणोपलब्धेरद्वैतवादिनोऽप्रसिद्धत्वात् । न च 'परस्परानुप्रवेशोपलब्धिरपि दो में रहने वाला होता है अत: दोनों का संवेदन होने पर ही भेदसंवेदन हो सकता है किन्तु हकीकत यह है कि नीलस्वरूप जब अपरोक्ष होता है तब वह नील पीत का भान नहीं करता, ऐसे ही पीत नील का । यदि ऐसा एक-दूसरे का भाव शक्य हो तब तो वे दोनों दो न रह कर एक ही हो जायेंगे क्योंकि प्रकाशमान-नीलपीतस्वरूप संवेदन एक है और समकालीन है।
यदि ऐसा कहें- नीलसंवेदनकाल में पीत का असंवेदन है वही भेदसंवेदन है तो यहाँ वास्तव में तो नीलस्वरूप संवेदन में नील ही स्फुरित होता है किन्तु यह स्फुरित नहीं होता कि पीतादि अप्रतिभासमान है, जब पीतादि की अभासमानता का भी स्फुरण नहीं होता तब 'अप्रतिभासमान है' ऐसा भी कैसे कह सकते हैं ? और जब नास्तित्व का संवेदन नहीं है तो 'वही भेदसंवेदन है' ऐसा कह कर भेदसिद्धि कैसे कर पायेंगे ? प्रतिभास तो सिर्फ नील या पीत के अपने स्वरूप का ही होता है नास्तित्व या भेद का नहीं।
★भेदपक्ष में चरम परमाणु की सिद्धि दुष्कर ★ भेदवादी के पक्ष में अनवस्था भी बहुत होती है, स्थूलावभासी जो नीलादि हैं उन में भी भेदवादी अनेक दिशाओं के साथ अंशत: संयोग के आधार पर परमाणुभेद मानते हैं। किन्तु परमाणु को भी विविध दिशा के संयोग से अनेक अंश रूप ही मानना पडेगा, उसके एक एक अंश का भी पुन: विविधदिशा संयोग से भेद मानना होगा- इस प्रकार किसी भी सूक्ष्म अंश को स्थायि अन्तिम स्वरूप प्राप्त न होगा। भेद की सिद्धि के लिये पहले स्थायिरूप में किसी एक की सिद्धि होनी चाहिये तब उसके विपर्यय से किसी दूसरे में उस के भेद का स्थापन हो सकता है, किन्तु भेदवाद में पूर्वोक्त ढंग से अनवस्था दोष के कारण उस की मान्यता के अनुसार परमाणु में भी अभेद यानी अखंडता सिद्ध न होने से किसी एक की स्थायीरूप में सिद्धि ही नहीं हो पाती।
आशंका :- बाह्य नीलादिस्वरूप जो होता है वह आन्तरिक सुखादिरूप में अनुभूत नहीं होते । अत: भेद जैसे प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं होता वैसे अभेद भी प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं हो सकता।
उत्तर :- यह विधान गलत है, क्योंकि नीलादिप्रतिभास में सुखादि का या उसके भेद का संवेदन नहीं होता है, भेद का असंवेदन या अभेद का संवेदन एक ही बात है।
आशंका :- ऐसा तो प्रतिवादी भी कह सकता है कि नीलादि का भी आत्मस्वरूप यानी अभेद का वेदन नहीं होता, यह अभेद का अवेदन या भेद का वेदन एक ही बात है। तो इस प्रकार भेदपक्ष और अभेद पक्ष के समर्थन में क्या विशेषता रही ? देखिये - जगत में एक देश, एक काल या एक सन्तानाकार की
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