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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् तदप्रतीतौ तेन नील- पीतादेर्भेदवेदनाऽयोगात् । न हि भिन्नेनात्मनाऽप्रतीयमानो बोधोऽर्थान् भिन्नान् प्रतिपादयितुं समर्थः, शषविषाणादेरपि व्यवस्थापकत्वप्रसंगात् । भिन्नस्तु बोधात्मा प्रत्ययान्तरेण किं प्रतीयते उत स्वात्मनैव ? यदि 'प्रत्ययान्तरेण' इति पक्षः, सोऽनुपपन्नः, यतस्तदपि प्रत्ययान्तरमन्येन प्रत्ययान्तरेण भिन्नं प्रत्येतव्यम् तदप्यन्येनेत्यनवस्थाप्रसक्तिः स्यात् । अथात्मनैव, तदा स्वरूपनिमग्नत्वान नीलावभासं भिनत्ति तत् कुतो भेदसंवित् ? अथ स्वत एव नीलादेर्भेदवेदनम्, तदपि न युक्तम्, यतो यदि स्वत एव नीलादयः प्रकाशन्ते तदा स्वप्रकाशास्ते प्रसजन्ति, स्वप्रकाशत्वे च नीलादेर्नीलस्वरूपं स्वात्मनि निमग्नं न पीतरूपसंस्पर्शि पीतस्वरूपं च स्वस्वरूपावभासं न नीलरूपसंस्पर्शि, तत् कुतः परस्पराऽसंवेदनात् स्वरूपतोऽपि भेदसंवित्तः ? भेदो हि द्विष्ठो द्वयसंवेदने सति विदितो भवेत्, नीलस्वरूपे वा परोक्षे नीलं न पीतमाभाति तथात्वे सत्येकतापत्तेः । अथ प्रतिभासनमेव भेदवेदनम्, ननु नीलस्वरूपप्रतिभासे नीलं विदितम् पी - तादिकं त्वनवभासमानं तत्र नास्तीति न शक्यं वक्तुम्, नास्तित्वाऽवेदने च कुतो भेदसिद्धिः स्वरूपमात्रस्य प्रतिभासनात् ? २७८ हैं तो उन दोनों के उपलम्भों में परस्पर संनिधान की अपेक्षा न होने से उन में वेद्य-वेदक भाव होने का सम्भव नहीं है । सारांश, समानकालीन नील- पीत के भी भेद का साधन बोधात्मा से दुष्कर है, क्योंकि बोधात्मा अपने स्वरूप में ही रक्त होता है । दूसरी बात यह है कि, नील - पीतादि से स्वयं भिन्न रूप में बोधात्मा प्रतीत होगा तभी वह अपने से भिन्न नील - पीतादि के भेद का ग्रहण कर सकेगा, क्योंकि स्वयं ही जब भिन्नरूप में प्रतीत नहीं होगा तो बाह्यार्थी को भिन्न रूप में वह कैसे ग्रहण कर पायेगा ! जबरन ऐसा मानेंगे तो स्वयं जो भिन्नरूप में प्रतीत नहीं होता ऐसे शशसींग से भी नील- पीतादि के भेद को प्रकाशित करने के लिये बोधात्मा को स्वयं भिन्नरूप में प्रतीत होना अनिवार्य है तब ये दो विकल्प खड़े होंगे, वह बोधात्मा अपने आप ही भिन्नरूप से प्रकाशित होगा ? या अन्य प्रतीति से ? दूसरा विकल्प तो अयुक्त ही है क्योंकि उस को भी अन्य प्रतीति से भिन्नरूप में प्रकाशित होने के लिये और एक अन्य प्रतीति की आवश्यकता होगी, उसके लिये भी और एक प्रतीति की.. इस तरह अनवस्था सिर उठायेगी । यदि वह अपने आप ही अपने को भिन्नरूप से प्रकाशित करेगा ऐसा माना जाय तो वह अपनी भिन्नरूप प्रतीति में ही सराबोर रहेगा, तब नीलावभास का भेद सिद्ध करने के लिये अवकाश कैसे पायेगा ? अब ऐसी स्थिति में भेद - संवेदन कैसे हस्ती पायेगा !? ★ स्वप्रकाश नीलादिपक्ष में भेदस्फुरण अशक्य ★ पहले जो दो विकल्प कहे थे कि स्वरूपभेद प्रकाशमाननीलादि का अपने आप स्फुरित होता है या भिन्न प्रतिभास (बोधात्मा) से अवगत होता है ? इन में से दूसरे विकल्प का परीक्षण हो गया । अब यदि प्रथम विकल्प अंगीकार करें तो वह भी युक्त नहीं है । कारण, नीलादि स्वतः प्रकाशमान हो और उन के साथ अपना भेद भी स्वतः स्फुरित हो ऐसा मानने पर नीलादि को स्वप्रकाश मानना पडेगा, उस स्थिति में स्वप्रकाश नीलादि का नीलस्वरूप अपने आप को प्रकाशित करने में व्यापृत रहेगा किन्तु पीतरूप की ओर देखेगा भी नहीं, एवमेव पीतस्वरूप अपने आप को प्रकाशित करने में रक्त रहेगा वह नील की ओर नहीं देखेगा, परिणाम यह होगा कि दोनों एक-दूसरे को छुएँगे भी नहीं तो एक दूसरे के स्वरूप के भेद का संवेदन कैसे होगा ? भेद तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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