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द्वितीय: खण्ड:-का०-३
२७७ किंच, असावपि व्यापारः किमर्थे व्याप्रियते ? न वा ? इति कल्पनाद्वयम् । यदि न व्याप्रियते कथं तस्मिन् सत्यप्यर्थस्य ग्राह्यता बोधस्य च ग्राहकता ? अथ व्याप्रियते तदा तत्राप्यपरो व्यापारोऽभ्युपगन्तव्यः, तत्राप्यपर इति सैवानवस्था । अथ व्यापारस्य स्वरूपमेव व्यापारः । ननु नीलादेरपि व्यापृतिकाले स्वरूपमस्तीति तत् तस्य व्यापारः स्यात् तस्मात् बोध-नीलव्यापारलक्षणस्य त्रितयस्यैककालमुपलम्भान कर्तृ-कर्म-क्रियाव्यवहृतिः सम्भवतीति न ग्राह्य-ग्राहकभावः समस्ति तत्त्वतः । भिन्नकालयोस्तु ज्ञान-ज्ञेययोः परस्परसन्निधिनिरपेक्षोपलम्भप्रवर्त्तनान वेद्य-वेदकतासम्भवः । तन बोधात्मा तुल्यकालयोर्नील-पीतयोर्भेदस्य साधकः, तस्य स्वरूपनिष्ठत्वात् । किंच, सोपि नीलादेर्भिन्नः प्रत्येतव्यः के ग्रहण के लिये बोधात्मा सव्यापार बनता है वैसे ही व्यापार के ग्रहण के लिये भी सव्यापार होना पडेगा, उस व्यापार के लिये भी नया व्यापार करना होगा, इस प्रकार व्यापारपरम्परा का अन्त नहीं होगा। यदि ऐसा कहें कि - 'व्यापार अपने आप ही उपलब्ध हो जाने से नये नये व्यापार की परम्परा नहीं चलेगी'- तो वह स्वतन्त्र उपलब्ध होने से उसको व्यापार कैसे कहेंगे ? बोध के स्कुरायमाण होते हुए उसके साथ स्वतन्त्रविधया स्फुरित होने वाला पदार्थ बोध का व्यापार नहीं बन सकता, क्योंकि विपरीत संभावना - बोध ही उस स्वतन्त्र स्फुरायमाण पदार्थ का व्यापार होने की आपत्ति होगी । यदि कहें कि - 'वह बोधपरतन्त्र यानी बोधावलम्बि होने से वही बोध की व्यापृति यानी व्यापार कहा जायेगा, विपरीत सम्भावना नहीं होगी।'- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि स्वतन्त्ररूप से समकाल स्फुरित होने वाले एकदूसरे के परतन्त्र नहीं हो सकते । जो अपने स्वरूप से, बोधसम्पन्नकाल में स्फुरित होता है वह बोध का परतन्त्र नहीं कहा जा सकता, अन्यथा बोध ही उसका (व्यापार का) परतन्त्र होने की आपत्ति होगी। यह तो उत्पन्न व्यापार की बात हुई, जब उत्पन्न भी व्यापार बोध का परतन्त्र होने में कोई तर्क नहीं है तो अनुत्पन्न व्यापार सर्वथा बोध-परतन्त्र नहीं हो सकता । खरविषाण जो कि कभी उत्पन्न ही नहीं होता उसके लिये कभी लोगों में ऐसा व्यवहार नहीं देखा कि वह किसी का परतन्त्र है। अत: उत्पन्न या अनुत्पन्न किसी भी दशा में, परतन्त्रता सिद्ध नहीं होती । अत: बोध के व्यापार की कथा गलत है।
★बोधव्यापार सव्यापार होने पर अनवस्था* __ यह भी सोचना चाहिये- बोध का व्यापार नीलादि अर्थ के ग्रहण में उदासीन रहता है या सव्यापार होता है ? ये दो विकल्प हैं। यदि उदासीन होता है तब तो उसके होते हुए भी नीलादि कैसे ग्राह्य बनेंगे
और बोध भी उसका ग्राहक कैसे होगा ? यदि सव्यापार होता है तो उस दूसरे व्यापार के लिये भी, जैसे पहले बोध के लिये व्यापार आवश्यक माना गया, वैसे, नया व्यापार मानना पडेगा, उसके लिये भी एक और नया व्यापार, इस प्रकार पूर्ववत् अनवस्था होगी । यदि कहें कि व्यापार तो स्वयं ही व्यापारात्मक है इसलिये उसे नये व्यापार की आवश्यकता नहीं रहेगी- तो यहाँ जैसे व्यापार का स्वरूप व्यापारात्मक हो सकता है वैसे नीलादि का भी क्यों नहीं हो सकता ? व्यापार काल में ही नीलादि का भी स्वरूप मौजूदा है अत: वही खुद व्यापार हो जाय, बीच में नये व्यापार मानने की जरूर क्या ? फिर भी बोध-व्यापार और नीलादि त्रिपुटी की कल्पना करना है तो करो लेकिन ये तीनों समकालीन होने से कर्तृ-क्रिया-कर्म का व्यवहार नहीं घट सकेगा, फलत: बोध एवं नीलादि में वास्तविक ग्राहक-ग्राह्य भाव नहीं बन सकेगा । यदि ज्ञान और ज्ञेय भिन्नकालीन
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