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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
अथ बोधात्मा पुरःस्थेषु नीलादिषु प्रत्यक्षतां प्रति व्याप्रियमाण उपलभ्यत इति ग्राहकः, नीलादिस्तु तद्विषयत्वाद् ग्राह्यः । तदप्यसत् व्यापारस्य तद्व्यतिरिक्तस्यानुपलम्भेनासत्त्वात् न हि प्रकाशमाननीलसुखादिरूपबोधाभ्यामन्यो व्यापार उपलभ्यते, उपलम्भे वा तस्य तत्राप्यपरो व्यापारो बोधस्याभ्युपगन्तव्यः, पुनस्तत्राप्यपरो व्यापार इत्यनवस्था । अथ स्वत एवासौ व्यापार उपलभ्यते । नन्वेवं तस्य स्वातन्त्र्येणोपलम्भाद् व्यापारताऽनुपपत्तिः, न हि बोधावभाससमये स्वतन्त्रतनुरुद्भासमानः पदार्थो बोधव्यापार इति युक्तम्, बोधस्यापि तद्वयापारताप्रसंगात् । ' बोधपरतन्त्रत्वाद् व्यापारः तद्वयावृत्ति (? पृति) रि' ति चेत् ? न, समानकालावभासिनस्तस्य प्रारतन्त्र्याऽयोगात् । न हि स्वरूपेण बोधकाले प्रतीयमानतनु तत् परतन्त्रं भवितुं युक्तम्, बोधस्यापि व्यापारपरतन्त्रतापत्तेः । अनिष्पन्नरूपस्तु व्यापारः सुतरां न परतन्त्रः, नहि खरविषाणं तथा व्यवहारभाग् लोके प्रसिद्धम् । तस्मादुभयथाप्यसत् पारतन्त्र्यम् । तन कस्यचिद् व्यापारः ।
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भিन
उत्तर :- यह विधान भी असंगत है। क्योंकि यहाँ प्रश्न खडा होता है- स्वयं प्रकाशमान स्वरूप नील-पीत शरीर का स्वरूपभेद क्या उन के प्रतिभास के साथ साथ स्वतः भासित होता है या उनके प्रतिभास प्रतिभास में - शुद्ध बोधात्मा में स्वतन्त्र भासित होता है ?
प्रथम दूसरे विकल्प की विचारणा करें तो लगता है कि बोधात्मा संमुखवर्त्ती नील - पीत के भेद को प्रकाशित करने के लिये सक्षम नहीं है, क्योंकि बाह्य अपरोक्ष नीलादि के आकार से एवं आन्तरिक सुखादिरूप अनुभूति से सर्वथा अतिरिक्तशरीरी बोधात्मा का स्वप्न में भी अनुभव नहीं होता । यदि कहें कि - ' अहम् = मैं' इस स्वरूप से नीलादिविनिर्मुक्त शुद्ध बोधात्मा अनुभवसिद्ध है - तो यह योग्य नहीं है क्योंकि यहाँ शुद्ध बोध अनुभवारूढ नहीं होता किन्तु वह 'मैं सुखी' 'मैं दुःखी' इस प्रकार से अथवा 'मैं स्थूल हूँ' 'मैं पतला हूँ' इस ढंगसे सुखादि या शरीरादि से मिलितरूप में ही अनुभूत होता है, किन्तु सुखादि से विनिर्मुक्त बोध अनुभव नहीं होता । तात्पर्य, बोधात्मा ब अभ्यन्तर विषय से ही उपरक्त रहने के कारण स्वतन्त्ररूप से भेदविषयी नहीं हो पाता । अथवा सिधी बात है कि अपने शुद्धस्वरूप से जो स्व का भी शुद्ध प्रतिभास नहीं कर पाता वह अन्य भावों की निर्दोष व्यवस्था कैसे कर पायेगा !! यदि किसी प्रकार यह मान ले कि शुद्धस्वरूप से प्रकाशमय बोध की हस्ती होती है, तो वह तो अपने स्वरूप के उद्भासन में रक्त रहेगा, भिन्न नीलादि के ग्रहण की झंझट वह क्यों करेगा ? 'बोधानुभवकाल में साथ साथ नीलादि भी भासित होते हैं इसलिये वह नीलादि ग्राहक हो सके' यह नहीं मान सकते, क्योंकि विपरीत संभावना, नीलादि ही बोध के ग्राहक होने की भी की जा सकेगी।
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★ बोध सव्यापार होने में अनुपपत्ति ★
आशंका :- विपरीत सम्भावना सम्भव नहीं है क्योंकि संमुखवर्त्ती नीलादि उदासीन होते हैं जब कि धामा नीलादि का प्रत्यक्ष करने के लिये व्यापृत = सक्रिय = सव्यापार होता हुआ अनुभव में आता है । इसलिये बोधात्मा ही 'ग्राहक' होगा और नीलादि उसका विषय होने से 'ग्राह्य' माना जायेगा ।
उत्तर :- यह आशंका गलत है क्योंकि बोध से पृथक् किसी व्यापार का उपलम्भ नहीं होता इसलिये व्यापार की वस्तु ही नहीं है । प्रकाशमान नीलादिबोध और सुखादिबोध को छोड कर और किसी व्यापार उपलब्ध ही नहीं होता । मान लो कि वह उपलब्ध होता है - तो अनवस्था दोष सिर उठायेगा, क्योंकि जैसे नीलादि
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