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द्वितीयः खण्डः - का०-३
दस्तत्रापि तद्रूपेण स्वरूपे भेद एवोपलक्ष्यते न पुनः स्वरूपभेदादपरो भेदः सम्भवति अन्यस्यान्यन भेदाऽयोगात् तस्मात् स्वभावभेद एवास्ति प्रतिभासनात् । इत्यप्ययुक्तम्, यतः स्वरूपभेदो द्वयोरुद्योतमानवपुषोः किं स्वत एव प्रतिभाति उत व्यतिरिक्तप्रतिभासावसेयः ? तत्र न तावद् बोधात्मा पुरस्थयोर्नील-पीतयोर्भेदमवगमयितुं प्रभुः तस्यापरोक्षनीलाद्याकारव्यतिरिक्तवपुषः सुखादिव्यतिरिक्ततनोश्वाप्रतिभासमानत्वेनासत्त्वात् । तथाहि - बहिर्नीलादिः सुखादिभ्रान्तः परिस्फुटं द्वयमाभाति न तद्वयतिरिक्तो बोधात्मा स्वप्नेऽप्युपलभ्यते इति कथमसावस्ति ? अथ ' अहम् ' प्रत्ययेन बोधात्माऽवसीयते । न तत्र शुद्धस्य बोधस्याsप्रतिभासनात् । स खलु ' अहं सुखी दुःखी स्थूलः कृशो वा' इति सुखादि शरीरं ass लम्बमानः प्रसूयते न तद्द्व्यतिरिक्तं बोधस्वरूपम् । तन तद्विषयोऽप्यसौ । स्वरूपेण वाऽप्रतिभासमानवपुर्बोधः कथं भावान् व्यवस्थापयितुं प्रभुः ? नहि शशविषाणं कस्यचिद् व्यवस्थापकं युक्तम् । भवतु वा व्यतिरिक्तो बोधः प्रकाशमानवपुस्तथाप्यसौ स्वरूपनिमग्नत्वात् न नीलादेर्भिन्नस्य ग्राहको युक्तः, न हि बोधकाले नीलादिकमाभातीति तस्य बोधो ग्राहको भवेत् नीलादेरपि बोधं प्रति ग्राहकतापत्तेः ।
होता है या स्मृति से ? दोनों में से एक भी पूर्वरूप के प्रकाशन में समर्थ नहीं है क्योंकि पहले कह दिया है के ये दोनों अपने अपने अर्थसंवेदन में ही तल्लीन रहते हैं । जब पूर्वरूप का आवेदन शक्य नहीं तो उसकी विविक्तता यानी भेद का अधिगम कैसे होगा ? पूर्वरूप के अप्रतिभास से भेदसंवेदन का आपादन भी गलत है क्योंकि जैसे पूर्वरूप की प्रतीति नहीं होती वैसे उसके प्रतिभास का अभाव भी प्रतीत नहीं होता । इस लिये कोई भी प्रतीति (चाहे प्रत्यक्ष या स्मृति) 'पूर्वरूप था' इस ढंग से अवगम करने के लिये सक्षम नहीं है ।
आशंका :- भेद भावरूप ही है, अतः भावप्रतिभास के साथ भेद भी प्रतीत हो जाता है ।
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उत्तर :- यह विधान भी असंगत है, क्योंकि भेद की व्यवस्था 'यह उससे भिन्न है' इस प्रकार प्रतियोगी के सापेक्ष उल्लेख से ही होती है, अतः सिद्ध होता है कि भेद भावस्वरूप नहीं है । यदि भावस्वरूप ही भेद होता न कि परसापेक्ष, तब तो पर की अपेक्षा से भेद होता है वह स्व की अपेक्षा से भी प्रसक्त होगा, यानी घट में वस्त्रभेद की तरह घटभेद भी सावकाश होगा । यदि कहें कि पर की अपेक्षा से होने वाला भेद भाव स्वरूप होता है इसलिये स्व की अपेक्षा से भेद प्रसक्त नहीं होगा' - तो ऐसा भेद उपलब्ध होना शक्य नहीं क्योंकि पररूप की प्रतीति पूर्वोक्त रीति से शक्य न होने से उस की अपेक्षा पर अवलंबित स्वरूपात्मक भेद भी कैसे उपलब्ध होगा ? सारांश, पूर्वोत्तरकालभेद पदार्थावलम्बी होने का सम्भव नहीं है अतः कालभेद से वस्तुभेद की सिद्धि भी अशक्य है ।
★ अपरोक्ष नीलादिआकारव्यतिरिक्त बोधात्मा असत्★
आशंका :- नीलाकार - पीताकार के भेद से समकालीन नील और पीत का भेद शरीर स्पष्ट ही लक्षित होता है । जहाँ, स्वरूपभेद के बदले देश-काल के भेद से वस्तुभेद प्रगट किया जाता है वहाँ भी वास्तव में देश-काल भेद तो उपलक्षणमात्र होता है और उस भेद से स्वरूपभेद ही उपलक्षित होता है । वास्तव में स्वरूपभेद को छोड कर और किसी से किसी का भेद होता ही नहीं । क्योंकि एक के भेद से दूसरे का भेद सम्भव नहीं होता जैसे कि वस्त्रभेद से पुरुषभेद नहीं हो जाता । संक्षेप में कहे तो सिर्फ स्वभावभेद ही प्रतिभासित होता है इसलिये उसी की हस्ती प्रामाणिक है ।
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