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________________ २७४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् 'विशिष्टरूपानुभवान्नान्यथा न्यनिराक्रिया' [प्र०वा. ४-२७३ पू०] इति । एतदप्यसंगतम्, यतः पूर्वरूपविविक्तता प्रत्यक्षप्रतिपत्तेः स्मृतेर्वा कुतोऽवगता ? तादृक् स्मृतिश्च द्वयमपि स्वार्थनिमग्नं न पूर्वरूपमधिगन्तुमीशम्, तदनवगमे च न तद्विविक्तताधिगतिः तदप्रतिभासनमपि तदप्रतीतेरेवासिद्धम् । तस्मात् 'पूर्वरूपमासीत्' इति न काचित् प्रतिपत्तिः प्रतिपत्तुं क्षमा । ___ अथ भावरूपमेव भेदः तत्प्रतिभासे सोऽपि प्रतिपन्न एव । तदप्यसत्, यतो न भावरूपमेव भेदः, प्रतियोगिनमपेक्ष्य 'ततो भिन्नमेतत्' इति भेदव्यवस्थापनात् । यदि च स्वरूपमेव भेदस्तदार्थस्यात्मापेक्षयापि भेदः स्यात् । 'परापेक्षया स्वरूपभेदः नात्मापेक्षया' इति चेत् ? न, पररूपाऽप्रतिपत्तौ तदपेक्षया स्वरूपभेदो न प्रतिपत्तुं शक्यः इति न पूर्वापरकालभेदः पदार्थसम्भवी। अथ आकारभेदाद् भेदः समानकालयोः नील-पीतयोरवभासमानवपुरस्ति, यत्रापि देश-कालभेइस प्रकार दोनों के गृहीत रहने पर भेदोपलम्भ भी हो सकता है । सिर्फ दर्शनव्यक्ति से ही भेदोपलम्भ तो नहीं होगा किन्तु पूर्वदृष्टार्थग्राहिणी स्मृति से अनुगृहीत दर्शन से तो हो सकता है न ! उत्तर :- यह आशंका गलत है । कारण, स्मृति हालाँकि पूर्वानुभूत अर्थ का उपलम्भ कर ले तो भी उस पूर्व अर्थ का 'भिन्न' रूप में तो उपलम्भ नहीं करती, तब वह कैसे दर्शन के समक्ष 'भिन्न' रूप में पूर्व प्रतियोगीभूत अर्थ का प्रकाशन करेगी ? अत: फलित हुआ कि स्मृति से या उस की सहायता से भी भेद का उपलम्भ संगत नहीं होता । दूसरी बात यह है कि स्मृति तो अपने स्वरूपग्रहण में ही मग्न रहती है, अत: भाव के भेद का प्रकाशन करने में वह सक्षम नहीं हो सकती । इन विकल्पों पर सोचिये कि (१)- स्मृति पूर्वानुभूत अर्थ का प्रकाशन स्मर्यमाण (यानी पूर्वकाल में अनुभवारूढ) रूप से करेगी या (२) वर्तमानकाल में दृश्यमान रूप से करेगी ? (२) वर्तमान में दृश्यमान अर्थ तो स्मृति में प्रतिबिम्बित ही नहीं होता अतः वर्तमान में दृश्यमान रूप से तो वह उसका प्रकाशन कर नहीं सकती। (१) स्मर्यमाण (यानी पूर्वकाल में अनुभवारूढ) रूप से भी वह अर्थ का प्रकाशन नहीं कर सकती क्योंकि वह रूप अब स्मृतिकाल में विद्यमान ही नहीं है। पूर्वक्षण में दर्शन में प्रतिबिम्बित जो रूप था वह तो स्पष्टरूप से पूर्वक्षण में ही अनुभूत हुआ था लेकिन अब वह विद्यमान न होने से स्मृति में प्रतिबिम्बित हो नहीं सकता । सारांश, स्मृति अर्थस्वरूप का ग्रहण करे यह सम्भवित नहीं है, अत: उस से भेद-प्रकाशन भी शक्य नहीं । ★ पूर्वकालीन अर्थभेदप्रतिभास अशक्य* आशंका :- उत्तरक्षण के दर्शन में जब पूर्वकालीन रूप भासित नहीं होता तो उसके अप्रतिभासस्वरूप जो उत्तरक्षणसंवेदन है वही भेदसंवेदनरूप है । कहा भी है प्रमाणवार्त्तिक में कि 'भेदसिद्धि विशिष्ट यानी नियत रूप के अनुभव से होती है, अन्यथा उस के द्वारा अन्य का निषेध नहीं किया जा सकता' । इसका तात्पर्य यह है कि उत्तरक्षण में पूर्वकालीन अर्थ के प्रतिभास का जो निषेध किया जाता है वही भेदसंवेदन में प्रमाण है क्योंकि उसके विना पूर्वकालीन अर्थ के प्रतिभास का निषेध कैसे कर पायेंगे ? उत्तर :- यह विधान भी असंगत है, क्योंकि पूर्वरूप से विशिष्टता या विविक्तता का अवगम प्रत्यक्ष से * पूर्वमुद्रिते तु 'बान्यतोऽपि नि' इति पाठः, पाठान्तरं च 'न्यतोऽन्यनि' इति सूचितम् । प्रमाणवार्तिके मूले 'दन्यथान्यनि' इति पाठः किन्तु टीकायां 'निराक्रिया न भवति' इति व्याख्यातमत: 'नान्यथान्यनि' इत्येव पाठ: सम्यक मत्वात्र न्यस्तः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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