________________
द्वितीयः खण्ड:-का०-३
२७१
अत एव तत्त्वविद्भिक्तम्- [गौडपादकारिका ६ - ३१] 'आदावन्ते च यत्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा । वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः ॥'
वितयैस्तु सादृश्यम् = अवितथत्वाभिमतानां कालत्रयव्यापित्वम् । तत् प्रत्यक्षेण प्रतीयमानस्य सद्रूपताया ग्रहणात् 'सर्वमेकं सल्लक्षणं च ब्रह्म' [ ] इत्याहुः । आगमश्चाभेदप्रतिपादकः - तथा च मन्त्रः 'इन्द्रो मायाभिः पर[पुरु] रूप ईयते" [ऋग्वे. मं० ६ सूक्त ४७ ऋचा १८] इत्यनेनाभिन्नस्य मायाकृतो भेदो दयते । तथा, ब्राह्मणेऽपि भेदनिषेध उक्तः 'नेह नानाऽस्ति किंचन' [बृहदा० ४-४ -१९] । तथा भेददर्शिनो निन्दार्थवादः श्रूयते- 'मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति' [वृहदा० ४-४-१९] 'इव' शब्देनौपचारिकत्वं भेदस्य दर्शितम् । तथा, 'एकमेवाऽद्वितीयम्' [छान्दो० ६-२-१] इत्यवधारणाऽद्वितीयशब्दाभ्यामयमेवार्थः स्फुटीकृतः । 'पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतम्' [ऋक्सं० १०-९०.२] इत्यादिकचानेकस्तदद्वैतप्रतिपादक आम्नायः । न चागमस्याभेदप्रतिपादकस्य प्रत्यक्षबाधा, तस्यानुगतरूपग्राहकत्वेनाभ्युपगमात् तथाऽविरोधित्वात् । तदुक्तम् - ___ 'आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेछ् विपश्चितः। नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुध्यते ॥[ब्रत श्लो० १]
न चैतद् वचनमात्रम् यतो भेदः प्रत्यक्षप्रतीतिविषयत्वेनाभ्युपगम्यमानः किं देशभेदादभ्युपगम्यते आहोश्वित् कालभेदात् उत आकारभेदात् ? तत्र न तावद् देशभेदाद् भेदो युक्तः, स्वतोऽभिन्नस्यान्यभेदेऽपि भेदानुपपपत्तेः - न ह्यन्यभेदोऽन्यत्र संक्रामति । किंच, देशस्यापि यद्यपरदेशभेदाद् भेदः तथा प्रतीति सतत जारी रहती है इसलिये एक सीमा तक वही सद्भुत होती है, जब कि घटादि कुछ काल तक ही प्रतीत होते हैं और कुछ काल तक अर्थक्रिया साधक बने रहते हैं, सदा के लिये नहीं अत: स्वप्नदृष्ट पदार्थ (जो कि कुछ काल तक ही प्रतीत होते हैं और कुछ अर्थक्रिया करते दिखाई देते हैं उन) की तरह अपारमार्थिक हैं। यहाँ जो अभी कहा गया कि मृद्रूपता एक सीमा तक सद्भूत होती है उसका मतलब यह है कि घटादिभेद में अनुवृत्ति की अपेक्षा से, अर्थात् घटादि की अपेक्षा से ही उसको तात्त्विक कहा है, वास्तव में तो सत्त्व की अपेक्षा उस को देखा जाय तो मृद् भी सत् की अवस्थाविशेष यानी भेदस्वरूप होने से अपारमार्थिक ही है ।
___★ एक तत्त्व दर्शक आर्ष वाणी* कभी होवे कभी न होवे, ऐसी चीज पारमार्थिक नहीं होती इसीलिये तत्त्ववेत्ताओंने भी (गौडपादकारिका में) कहा है- “जिनकी प्रारम्भ (भूतकाल) में या अन्त (भविष्य) में हस्ती नहीं है उनकी वर्तमान में भी हस्ती नहीं होती । मिथ्यासदृश होते हुए भी वे सत्य जैसे लक्षित होते हैं।"
___ सत्य जैसे लक्षित होनेवाले मिथ्यासदृश होने का तात्पर्य है कि तीन काल में व्याप कर न रहना । प्रत्यक्षप्रतीति का जो कोई विषय है वह उक्त रीति से सत्स्वरूप से ही गृहीत होते हैं, अन्य विकल्पभासित स्वरूप मिथ्या है इसीलिये पूर्व ऋषियोंने कहा है कि "जो कुछ है वह सब एक ही सत्स्वरूप ब्रह्मात्मक है।" तथा, ऋग्वेद में भी अभेद का प्रतिपादन मिलता है जैसे कि एक मन्त्र में कहा है “इन्द्र यानी परमब्रह्म माया के प्रभाव से पुरुरूप यानी बहुरूपी लक्षित होता है" । ऐसे अर्थवाली मन्त्रऋचा से स्पष्ट ही अभिन्न-अखंड पदार्थ का भी माया के प्रभाव से भेद दिखाया गया है । तथा बाह्मण ग्रन्थ में भी (बृहदारण्यक में) 'यहाँ कुछ भी (वास्तविक)
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org