SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सति तद्देशस्यापि अपरदेशभेदाद् भेदः इत्यनेनानवस्था । स्वत एव चेद् देशभेदस्तर्हि भावभेदोऽपि स्वत एवास्तु किं देशभेदाद् भेदकल्पनया ? अपि च, यावदवष्टब्धौ देशै भिन्नौ भावयोर्भेदको नेतोद्भातः (नैवोद्रातः) तत् कुतस्तद्भेदात् भेदो ज्ञातुं शक्यः स्वतोऽव्यवस्थितयोरन्यव्यवस्थापकत्वाऽयोगात् ? यश्चाऽनवष्टब्धो देशः प्रतिभाति नासौ भेदकः अतिप्रसंगात् । तन्न देशभेदाद् भावभेदः समस्तीति नासौ प्रत्यक्षग्राह्यः । ___नापि कालभेदात् प्रत्यक्षतो भिन्नं वस्तु प्रत्येतुं शक्यम् सनिहितमात्रवृत्तित्वात् तस्य । तथाहियदा आयं दर्शनं मृत्पिण्डमुपलभते न तदा भाविनं घटम्, तदप्रतीतौ तदपेक्षया न स्वविषयस्य भेदं प्रत्यक्षं प्रत्येतुं समर्थम् प्रतियोगिग्रहणमन्तरेण 'ततो भिन्नमिदम्' इत्यनवगतेः । तत्र हि दर्शने मृदः स्वरूपं प्रतिभातीति तदधिगतिर्युक्ता, तत्राप्रतिभासमानं तु भाविघटादिरूपं भविष्यतीति नाऽत्र प्रमाणमस्ति, नापि तस्मात् भेदः । अथोत्तरकालभावि दर्शनं भिनं घटं मृत्पिण्डाद् दर्शयतीत्यभ्युपगमः सोऽ. प्ययुक्तः, यतः तदपि दर्शनं पुरःस्थितार्थप्रतिभासनान पूर्वदृष्टार्थग्रहणक्षमम्, तदग्रहणे च न तस्माद् भेदमादर्शयितुं क्षमं वर्तमानार्थस्य । तस्मान तेनापि भेदगतिः । वैविध्य नहीं है। ऐसा कह कर भेद का प्रतिषेध किया गया है । तथा बृहदारण्यक में ही भेददी की निन्दारूप अर्थवाद सुनाई देता है जैसे- 'जो यहाँ विविधताप्राय: का दर्शन करता है वह एक मृत्यु से दूसरे मृत्यु को प्राप्त करता रहता है।' यहाँ मूल ग्रन्थ में नानेव (= विविधताप्राय) नाना शब्द के साथ इव शब्द लगा कर भेद औपचारिक है वास्तविक नहीं- इस तथ्य की ओर संकेत किया गया है । तथा 'एकमेव अद्वितीयम्' इस छान्दोग्योपनिषत् में भी एवकार और 'अद्वितीयम्' ये दो शब्द भारपूर्वक अभेद के प्रतिपादन और भेद के निषेध को स्पष्ट करने के लिये कहे गये हैं। तथा ऋक्संहिता आदि अनेक वेदशास्त्रों में 'पुरुष ही यह सब कुछ है जो भूत या भावि है' इत्यादि कह कर अद्वैत तत्त्व की प्ररूपणा की गयी है। यदि कहें कि - 'भेदसाधक प्रत्यक्ष से अभेदप्रतिपादक आगम बाधित होते हैं - तो यह ठीक नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष का कार्य सिर्फ अनुगतरूप को ग्रहण करने का ही होता है- यह सर्वमान्य तथ्य है इसलिये प्रत्यक्ष भेदस्वरूप व्यावृत्ति का ग्राहक न होने से अभेदप्रतिपादक आगम का बाधक भी हो नहीं सकता । कहा भी है - पंडित लोग प्रत्यक्ष को विधातृ यानी अन्वयबोधक ही कहते हैं, निषेधबोधक नहीं । इसलिये एकत्व बोधक आगम के साथ प्रत्यक्ष का विरोध सम्भव नहीं । ★ देशभेद से भेद प्रत्यक्षग्राह्य नहीं है ★ हमने यह जो कहा वह युक्ति शून्य वचनमात्र ही है ऐसा मत समझना । भेद की परीक्षा कर के देखियेभेद को प्रत्यक्ष का विषय मानने वाले यह दिखाईये कि भेद कैसे होता है ? देशभेद से, कालभेद से या आकार (-स्वरूप) भेद से ? देशभेद से, वस्तुभेद मानना गलत है, क्योंकि जो स्वत: भिन्न नहीं है वह पराये भेद से भी भिन्न नहीं हो सकता । ऐसा तो नहीं है कि चैत्र-मैत्र का भेद देवदत्त में संक्रान्त हो जाय ! उपरांत, यह भी खोजना है कि वह देशभेद कैसे है ? यदि अन्य देशभेद से प्रस्तुत देशभेद है तो उस अन्य देशभेद भी अपर देशभेद से, वह भी इतर देशभेद से ... इस प्रकार अनवस्था चलेगी। यदि प्रस्तुत देशभेद परत: यानी अन्यदेशभेद प्रयुक्त नहीं किन्तु स्वत: होने का माना जाय तो वस्तुभेद भी स्वत: मान लेने पर देशभेदप्रयुक्त वस्तुभेद की कल्पना का कष्ट क्यों किया जाय ! दूसरी बात यह है कि दो भावों के भेदक रूप से अभिमत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy