SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् 'इदमस्माद् व्यावृत्तम्' एतच्चाध्यक्षस्याऽगोचरः, अत एव सर्वावस्थासु यद् अनुगतं रूपं तदेव तात्त्विकम्, यथा सर्पादिविकल्पेषु बोधमात्रं सर्वेष्वनुगच्छत् तथाभूतम् - सर्पाद्याकारास्तु व्यावृत्ताः परस्परतो भिन्नरूपा बाध्यन्ते, न पुनर्बाधकेन बोधमात्रस्य बाधा - तथा घटादिषु विभिन्नेषु मृद्रूपताssवृत्तिः, यावद्रेण्ववस्था तावदनुगतायां (याः) मृद्रूपतायाः सत्त्वम्, घटादीनां तु कश्चित्कालं प्रतीयमानानामप्यर्थक्रियां च साधयतां स्वप्नदृष्टपदार्थवन्न सत्त्वम् । यथा स्वभेदेष्वनुगताया मृद्रूपतायास्तात्त्विकत्वम् एवं मृद्रूपत्वादीनामपि सत्त्वापे - क्षया भेदरूपत्वान्न तात्त्विकत्वम् । २७० खोजना पडेगा, यदि वह उपलब्ध नहीं होगा तो भेदवान् या अभेदवान् ऐसा स्वामित्वबोधक निर्देश ही शक्य नहीं होगा । यदि समवाय का अन्य समवाय सबन्ध कल्पित करेंगे तो उसका भी अन्य, उसका भी अन्य, उसका भी अन्य ऐसी कल्पना का अन्त नहीं होगा । समवाय के बदले यदि विशेषण - विशेष्य सम्बन्ध की कल्पना करेंगे तो उसके लिये भी अन्य वि०वि० सम्बन्ध की कल्पना करनी होगी, यहाँ भी अनवस्था होगी, अतः किसी भी सम्बन्ध की सिद्धि शक्य नहीं है । इस से यही निष्कर्ष निकलता है कि दो से अतिरिक्त तीसरा कोइ स्वभाव न होने से, तीसरे स्वभाव की कल्पना पर अवलम्बित नयी कोई प्ररूपणा भी नहीं है जिस का उक्त दो नय की प्ररूपणा में अन्तर्भाव न होता हो । है तो इतना ही है कि इन्हीं दो नयों के शुद्धि - अशुद्धि की तरतमता के आधार पर अनेक प्रकार से वस्तुस्वभाव का निरूपण, उस के विविध विकल्प एवं विविध नामकरण आदि की प्रवृत्ति प्रसिद्धि पाती है । ★ शुद्ध द्रव्यास्तिकनय - संग्रहनयवत् प्ररूपणा ★ संग्रहनयाभिमत महासामान्यात्मक एक पदार्थ (विषय) में दृढ अध्यवसाय रखनेवाला शुद्ध द्रव्यास्तिकनय है । संग्रहनय का अभिप्राय :- सारा विश्व एकात्मक है क्योंकि सत्स्वरूप से अविशिष्ट यानी भेदशून्य है । तात्पर्य, सत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक भेद अप्रसिद्ध है । किस प्रकार विश्व एकात्मक है यह सुनिये - पदार्थमात्र पररूप से नहीं किन्तु अपने रूप से, स्वरूप से प्रकाशित होते हैं । पदार्थों का स्वरूप कैसा है ? सदात्मक है, जो कि विकल्प की दखलगिरि से शून्य प्रत्यक्ष से प्रकाशित होता है । भेद भाव का स्वरूप नहीं है क्योंकि वह अन्यसापेक्ष होता है, उदा० घटभेद घटसापेक्ष (घटप्रतियोगिक) होता है । यह नियम है कि जो दूसरे की अपेक्षा विना त्वरित प्रकाशित हो जाय वही उस का स्वरूप है, भेद तो प्रतियोगिसापेक्ष हो कर ही प्रतीत होता है अतः वह पारमार्थिक स्वरूप नहीं है, किन्तु काल्पनिक है क्योंकि वह विवादास्पदप्रामाण्यवाले विकल्प का विषय है । काल्पनिक होता है वह अपारमार्थिकसत् यानी असत् कहा जाता है । भेद की प्रतीति वस्तु के अनुगतरूप से नहीं किन्तु वस्तुबाह्य (= व्यावृत्त) रूप से, जैसे कि 'यह उस से व्यावृत्त ( = बाह्य) है' इसी उल्लेख के साथ होती है, व्यावृत्त स्वरूप होने से ही वह शुद्ध प्रत्यक्ष का गोचर नहीं होता। इस से यह फलित होता है कि सर्व अवस्थाओं में जिस की अविच्छिन्न ( = अनुगत) प्रतीति होती है वही वस्तु का तात्त्विक स्वरूप है । उदा० सर्प-रज्जु आदि के विकल्पों में सर्व अवस्थाओं में बोधमात्र अविच्छिन्नरूप से प्रतीत होने से वही पारमार्थिक है, जब कि परस्पर भिन्न, एक-दूसरे से बाह्यरूप में प्रतीत होनेवाले सर्पाकार - कुंडलीआकार आदि आकार कभी प्रतीत होते हैं कभी नहीं होते इस लिये बाधित होने से पारमार्थिक नहीं होते । जैसे कि घट - शरावादि पदार्थों में पिण्डावस्था, घटावस्था, कपालावस्था यावत् चूर्णावस्था तक मृद्रूपता की आवृत्ति = अनुवृत्ति अर्थात् अविच्छिन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy