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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २६१ तत्प्रतिभासपरमाणूनां वा परस्परविविक्तानां प्रत्यक्षे स्वसंवेदने च प्रतिभास इति नायं दोष;, तत्र परमाणुपारिमाण्डल्यादेः बहिरन्तश्चाऽप्रतिभासनात् स्थूलस्यैकस्य संहृतविकल्पावस्थायामपि बहिरन्तश्च वेद्यवेदकाकारविनिर्भासवतः प्रतिभासनात् । परमाणुरूपं बहिरनंशं संवेदनं वा प्रत्यक्षं प्रतिजानानः कथं सर्वज्ञत्वमात्मनो न प्रतिजानीते ? शक्यं हि वक्तुम्- संवेदनं संवेयं सकलं विषयीकरोति, देशकालस्वभावविप्रकृष्टेष्वपि भावेषु संवेदनस्य निरंकुशत्वात्, किन्तु कुतश्चिनिश्चयप्रबोधहेतोर्विकल्पानामियमशक्तिः यतो यथार्थस्वभावं प्रत्यक्षेण विषयीकृतमपि न निश्चिन्वन्तीति । 'प्रत्यक्षबुद्धेस्तथाप्रतिभासाभावात् सर्वज्ञत्वमयुक्तम्' इति चेत् ? परमाणुपारिमाण्डल्यादेरप्यप्रतिभासनं समानं संपश्यामः । । यदपि 'काल्पनिकः शब्दार्थयोः सम्बन्धः न नियतः' इति तदप्ययुक्तम्, प्रतिनियतसंकेतानुसारिणो नियताच्छब्दात् प्रतिनियतार्थप्रतिपत्तिदर्शनात् । तेन 'न शब्दस्वरूपं नियतार्थप्रतिपत्तिहेतुः तस्य सर्वार्थान् एकत्व पारमार्थिक तत्त्व है यह सिद्ध होगा । * विशेषण - विशेष्यभाव में अनुपपत्ति का निरसन * यह जो पहले कहा था [१३८-२७]- भिन्न भिन्न विज्ञान में प्रतिभासित होनेवाले नील-उत्पल में विशेषण-विशेष्य भाव होना संभवित नहीं है । एक विज्ञान में भी वे दोनों घट और पट की तरह एक साथ स्वतन्त्र तौर पर नहीं किन्तु दोनों तद्रूपतया भासित होंगे तो वहाँ तादात्म्य के कारण सिर्फ विशेषणरूपता अथवा विशेष्यरूपता ही उपलक्षित होगी । इस प्रकार, दोनों का उपरोक्त दो प्रकार से अतिरिक्त किसी तृतीय प्रकार से प्रतिभास न होने पर किसी भी एक ज्ञान में उनके विशेषण-विशेष्यभाव का भान शक्य नहीं- ऐसा पूर्वकथन अब निरस्त हो जाता है क्योंकि ऐसा तर्काभास अनेकनीलपरमाणु प्रतिभासक ज्ञान में और उसके संवेदन में समानरूप लगाया जा सकता है जो अभी कह चुके हैं । यदि कहें कि- ऐसा दोष नहीं हो सकता क्योंकि अनेक नीलपरमाणु या उनके प्रतिभासअणु अन्योन्य भिन्नरूप से प्रत्यक्ष में और उसके संवेदन में प्रतिभासित होते हैं- तो यह ठीक नहीं है क्योकि परमाणु के अणु-परिमाण आदि का बाहर या भीतर में कभी भी प्रतिभास नहीं होता । सब बाह्य विकल्प-संकल्प अवस्था जब मिट जाय- एक बार उपसंहत हो जाय ऐसी दशा में भी बाहर या भीतर एक ही नील का बाह्य में स्थूल एवं वेद्य आकार में, एवं. भीतर में उस के ज्ञान का वेदन आकार में प्रतिभास सभी को होता है। यदि आप बाहर में परमाणु का निरंश संवेदन या प्रत्यक्ष ज्ञान होने का दावा करते हैं तब तो आप स्वयं सर्वज्ञ होने का दावा भी क्यों नहीं करते ? आप कह सकते हैं कि- 'संवेदन ऐसा निरंकुश है कि वह दूरदेशस्थित- कालान्तरवर्ती एवं अयोग्यस्वभावी पदार्थों तक उसकी पहुँच होने से सकल संवेद्य पदार्थों को संवेदन विषय कर लेता है, किन्तु क्या करे, निश्चय प्रबोधहेतुभूत विकल्पों में किसी भी कारण से ऐसा सामर्थ्य नहीं है अत: प्रत्यक्ष के यथार्थस्वभाव सकल वस्तु विषय बनने पर भी विकल्प उनके निश्चायक नहीं होते हैं ।' यदि कहें कि – 'ऐसा हम नहीं कह सकते क्योंकि प्रत्यक्ष बुद्धि में सकल पदार्थ का प्रतिभास नहीं होता है अत: हमारे से सर्वज्ञता भी घट नहीं सकती'- तो समानरूप से हमारा यह निरीक्षण है कि परमाणु के अणुपरिणाम आदि के बारे में भी आप प्रत्यक्षसंवेदन का दावा नहीं कर सकते । ★नियतसंकेतानुसार नियत अर्थबोध★ यह जो पहले कहा था [१००-२५]- 'शब्दार्थ का सम्बन्ध काल्पनिक है, नियत नहीं है, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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