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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ज्ञाने नीलाद्याभासो यदि पीताभासतया संवेद्यते तदा पीताभासमेव तद् ज्ञानं न नीलाद्याभासमित्यादिकल्पनया न चित्रप्रतिभासमेकं ज्ञानम् । तथा, नीलसंवेदनेऽपि प्रतिपरमाण्वेवंकल्पनया नैकं नीलप्रतिभासं ज्ञानं, विविक्तस्य च ज्ञानपरमाणोरसंवेदनात् सर्वशून्यतापत्तेः सर्वव्यवहारोच्छेद इति न किंचिद् वक्तव्यम्। अथानेकनीलपरमाणुसमूहात्मकमेकत्वेन संवेदनादेकं नीलज्ञानम् तर्हि दृष्टश्रुतरूपमबाधितैकत्वप्रतिभासादेकं बहिर्वस्तु किं नाभ्युपगम्यते ? यथा युगपद्भाव्यनेकनीलज्ञानपरमावभासानां स्वसंवेदने एकत्वाऽविरोधः तथा क्रमेणापि दृष्ट-श्रुतावभासयोरेकत्वेनाऽविरोधः 'दृष्टं श्रुणोमि' इति ज्ञानेन भविष्यतीति ! एकत्वावभासिना दर्शनशब्दविषयस्यार्थस्यैकत्वं निश्चीयते इति परमार्थत एव तत् तत्त्वमिति ।।
एतेन 'भिन्नविज्ञानप्रतिभासिनोर्न विशेषण-विशेष्यभावः, एकविज्ञानप्रतिभासिनोरपि युगपत् स्वातन्त्र्येण द्वयोः प्रतिभासनाद् घट-पटयोरिव नासौ युक्तः । ताद्रूप्येण प्रतिभासने विशेष्यरूपता विशेषणरूपता वा केवला, द्वयोः प्रतिभासाभावात् न विशेषण-विशेष्यभावः कचिदपि ज्ञाने प्रतिभाति' इत्येतदपि निरस्तम्, अनेकनीलपरमाणुप्रतिभासज्ञाने तत्संवेदने वाऽस्य समानत्वात् । न च नीलपरमाणूनां में श्रुत का अध्यवसाय यदि 'दृष्ट' रूप से हो रहा है तब वह दृष्टरूप ही होना चाहिये, यदि दृष्टाध्यवसाय का श्रुतरूप में अध्यवसाय होता है तो वह श्रुतरूप ही है - मतलब यह है कि दृष्ट है वह श्रुतरूप नहीं है और श्रुत है तो दृष्टरूप नहीं है... इत्यादि- ऐसा दोषान्वेषण चित्ररूपवाले परवाने में समान है । देखो-रंगबिरंगे पतंगे के ज्ञान में नीलादिआकार का ग्रहण यदि पीतादिआकाररूप से होता है तो वह पीतादिआकार ही है न कि नीलादिआकार; एवं पीतादिआकार यदि नीलादिआकारमय गृहीत होता है तो वह नीलादिआकार स्वरूप ही है न कि पीतादिआकारस्वरूप । तब परवाने में एक चित्ररूप कैसे मानेंगे ? इसी तरह, पतंगावभासि ज्ञान में भी यदि नीलादिआभास का पीतादिआभासरूप में संवेदन होता है तो वह पीतादिआभास ही है न कि नीलादिआभास; एवं पीतादिआभास यदि नीलादिआभासरूप में संविदित होता है तब वह नीलादिआभास ही है न कि पीतादिआभास... इस प्रकार चित्रप्रतिभास एक ज्ञान भी कैसे सिद्ध होगा ?
नीलज्ञान भी एक संवेदनरूप सिद्ध नहीं होगा- देखिये, नीलपरमाणुपुञ्जग्राहक ज्ञान यदि एकनीलपरमाणुआकार है तो अन्यनीलपरमाणुआकार स्वरूप वह नहीं हो सकता.. इस प्रकार परमाणुभेद से ज्ञानभेद प्रसक्त होने पर एक नीलज्ञान सिद्ध नहीं होगा । नीलपरमाणुसंवेदी एक नीलज्ञान भी सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि परमाणु प्रत्यक्षगोचर नहीं है, अत एव एकनीलपरमाणुज्ञान भी अपनी हस्ती ही न होने से प्रत्यक्षगोचर नहीं है, फलस्वरूप सर्वशून्यतावाद सिर उठायेगा । जगत् के तमाम व्यवहारों का उच्छेद हो जायेगा । इस बात पर अधिक क्या कहा जाय ? ! __यदि ऐसा कहें कि- अनेक नीलपरमाणुओं का पुञ्ज एकात्मना संवेदित होता है इसलिये एक नीलज्ञान संगत होता है- तो दृष्ट और श्रुत पदार्थ भी जब निर्बाधरूपमें एकात्मना संविदित होता है तो दृष्ट-श्रुतस्वरूप एक बाह्यार्थ स्वीकारने में क्यों आप कतराते हैं ? जैसे एक साथ अनेक नीलपरमाणुवृंद से उत्पन्न अनेक नीलज्ञानाणुकावभासों के अपने संवेदन में एकत्व होने में कोई विरोध नहीं आता; तो ऐसे ही 'देखे हुए को सुनता, हूँ' इस ज्ञान के आधार पर, क्रमश: दृष्ट एवं श्रुत के अवभासों में भी एकत्व होने में विरोधावकाश नहीं होगा । इस प्रकार दर्शन और शब्द के विषयभूत अर्थों में भी एकत्वावभासिज्ञान से एकत्व का निश्चय होता है इसलिये उन का
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