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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २५९ नीलादिके प्रवर्तते तदा तदेवार्थः अर्थक्रियाक्षमत्वात्, न प्रत्यक्षप्रतिभातं नीलादिकं तस्यार्थक्रियासामर्थ्यरहितत्वात् । अथ तदपि नीलादिकमर्थक्रियाक्षमं तथापि तदर्थक्रियार्थी तदादानाय प्रवर्त्तते, ननु शाब्दप्रतिभासेप्येतत् समानमुत्पश्यामः । यदपि 'अथाऽविशदेनाकारेण शब्दास्तमर्थ प्रकाशयन्ति तदाऽसावस्पष्ट आकारो नेन्द्रियगोचरः' तदप्यसंगतम्, तस्येन्द्रियविषयत्वेन प्रतिपादितत्वात् तत्र प्रवृत्ताः शब्दाः कथं नेन्द्रियगोचरे प्रवृत्ताः भवन्ति ?! यदपि - 'श्रुतं पश्यामि' इत्येकत्वाध्यवसाये दृष्टरूपतया श्रुताध्यवसाये दृष्टमेव, श्रुतरूपतया दृष्टस्य ग्रहणे श्रुतमेव, न तयोस्तत्त्वम् इति - एतचित्रपतंगेऽपि समानम् । तथाहि - यदि तत्रापि नीलायाकारः पीताद्याकारतया गृह्यते चित्रपतंगज्ञानेन तदा पीताद्याकार एवासौ न नीलाद्याकारः; अथ नीलायाकारतया पीतायाकारो गृह्यते तदा नीलाद्याकार एवासौ कुतश्चित्र एकः ? तथा, तत्प्रतिभासेऽपि ★ प्रवृत्तिभंगदोष प्रत्यक्ष में भी तुल्य ★ पहले जो यह कहा गया था [१४५ -१६] - शब्द से ही अर्थ का अपने संपूर्णरूप से ग्रहण होता है तो प्रवृत्ति करने की जरूर नहीं रहेगी क्योंकि प्रवर्त्यरूप से भी वह सर्वथा गृहीत हो चुका है - यह दूषण प्रत्यक्षवादी को भी समान है । देखिये - प्रत्यक्ष से यदि सर्वात्मना नीलादि का ग्रहण होता है तो प्रवर्त्यरूप से भी गृहीत हो जाने से प्रवृत्ति करने की जरूर नहीं रहेगी । गृहीत हो जाने पर भी यदि प्रवृत्ति होती रहेगी तो सदा के लिये होती रहेगी, विराम नहीं होगा । यह जो पहले कहा था [१४५ -१८] - शब्द से अगृहीत भी कुछ स्वरूप होता है, उस के ग्रहण के लिये प्रवृत्ति को सार्थक मानेंगे तो उस का मतलब यह होगा जिस स्वरूप के ग्रहणार्थ प्रवृत्तिरूप अर्थक्रिया होती है वही पारमार्थिक स्वरूप है और वह शब्दार्थ नहीं है। यानी शब्द पारमार्थिक स्वरूप का वाचक नहीं है ।....इत्यादि - यह सब प्रत्यक्षपक्ष में भी समानरूप से कहा जा सकता है जैसे कि - प्रत्यक्ष से नीलादि गृहीत होने पर भी अर्थक्रियाप्रयोजक स्वरूप अगृहीत रहा है उस के ग्रहण के लिये प्रवृत्ति होती है, इस का फलितार्थ यह होगा कि अर्थक्रियासमर्थ होने से वह स्वरूप ही पारमार्थिक है, प्रत्यक्षगृहीत नीलादि अर्थक्रियासमर्थ न होने से अपारमार्थिक है। यदि ऐसा बचाव करें कि - प्रत्यक्षगृहीत नीलादि भी अर्थक्रियासमर्थ ही है, उस के अथवा अगृहीत के ग्रहण के लिये प्रवृत्ति नहीं होती किन्तु नीलादिसाध्य अर्थक्रिया का अर्थी उस अर्थक्रिया की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति करता है जो सार्थक है। - तो यह बात शाब्दप्रतिभास के लिये भी बचाव में समान तौर पर कही जा सकती है। पहले जो यह कहा था [१४५-२६] - शब्द कालान्तर में अविशदाकार से उसी (इन्द्रियगोचर) अर्थ का प्रकाशन करता है (किन्तु तब भी शब्द-अर्थ के सम्बन्ध का ग्रहण अध्यक्ष से संभव नहीं क्योंकि) इन्द्रियप्रत्यक्ष काल में तो वह 'अस्पष्टाकार' प्रत्यक्षगोचर नहीं था.....इत्यादि - वह कथन भी असंगत है क्योंकि अस्पष्टाकार भी इन्द्रियगोचर होता है यह पहले [२४५-१६] कह आये हैं, दूरवर्ती वृक्ष का प्रत्यक्ष में अस्पष्टाकार भासित होता है जो शब्द का भी गोचर है । अतः प्रत्यक्षगृहीत अर्थों के ही प्रतिपादन में प्रवृत्त शब्द 'इन्द्रिय गोचर अर्थ में प्रवृत्त नहीं होते' ऐसा कैसे कह सकते हैं ?! ★ Eष्ट-श्रुत का ऐक्य न मानने पर अनिष्टपरम्परा* पहले जो यह कहा था [१४१-१६] - 'सुने हुए को देखता हूँ' इस एकत्व के अध्यवसायी ज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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