________________
२५८
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् धर्मः । तच्च द्वयमपि शब्दार्थप्रतिभाससमये क्षयोपशमविशेषाविर्भूते क्वचिज्ज्ञाने प्रतिभासत एव । तथाहि - 'इदमस्य वाच्यम्', 'इदं वाऽस्य वाचकम्' इत्युल्लेखवत् तदाहिविशिष्टेन्द्रियादिसामग्रीप्रभवं ज्ञानमनुभूयत एव संकेतसमये । न च 'अस्येदं वाचकम्' इति किं प्रतिपादकं यद्वा, कार्यम् कारणं वा ?' इति पक्षत्रयोद्भावनं कर्तुं युक्तम् प्रतिपादकत्वस्य वाचकत्वप्रदर्शनात् । 'प्रतिपादकत्वेऽप्यधुनाऽन्यदा वा विशदेन रूपेणेन्द्रियप्रभव एव ज्ञाने तद् वस्तु प्रतिभाति न शाब्देन, शब्दस्य तत्र सामर्थ्यानवधारणात् - इत्येतदप्यसंगतम् विहितोत्तरत्वात् । दूरस्थवृक्षाद्यर्थग्राहिणोऽविशदस्यापि प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनात् शाब्दस्यापि तत्प्रतिभासविशिष्टस्य तत्र प्रामाण्येन तदुत्थापक शब्दस्य तत्र सामर्थ्याधिगतेः।
न च 'यदि शब्देनैवासावर्थः स्वरूपेण प्रतिपाद्यते तदास्य सर्वथा प्रतिपन्नत्वात् प्रवृत्तिर्न स्यात्' इति युक्तम् प्रत्यक्षेऽप्यस्य दूषणस्य समानत्वात् । तथाहि - प्रत्यक्षेणापि यदि नीलादिः सर्वात्मना प्रतिपन्नः किमर्थं तत्र प्रवर्तेत ? तथापि प्रवृत्तौ प्रवृत्तेरविरतिप्रसक्तिः । अथाऽप्रतिपनं किंचिद् रूपमस्ति यदर्थं प्रवृत्तिः - इत्यादिकमपि प्रत्यक्षेऽपि समानम् । तत्रापि हि शक्यते एवं वक्तुम् - यद्यर्थक्रियार्थ किसी का निश्चय (= निश्चयविषय) नहीं है, जब तत्त्वस्वरूप ही निश्चय से दूर है तो तत्त्वव्यवस्था कैसे होगी ? तत्त्वव्यवस्था यदि करना है तो प्रत्यक्ष की भाँति शब्द को भी सामान्य-विशेषोभयात्मक वस्तु का निश्चायक मान कर प्रमाणभूत मानना होगा । यदि यह कहा जाय - नेत्रजन्य प्रत्यक्ष में तो सिर्फ संमुखवर्ती घटादि का ही अनुभव होता है (शब्द का नहीं) और श्रोत्रजन्य ज्ञान में शब्दस्वरूप का ही अनुभव होता है (अर्थ का - घटादि का नहीं) अत: दोनों में से किसी भी एक में शब्द और अर्थ के वाच्यवाचकभाव की प्रतीति नहीं होती - तो यह ठीक नहीं है, हमारे जैन मत में वाच्यवाचकभाव शब्द-अर्थ से एकान्ततः भिन्न नहीं माना जाता जिस से कि उस का पृथक् प्रतिभास किया जा सके । हमारा मत ऐसा है कि शब्दनिष्ठ वाचकत्व जो कि संकेतावलम्बी है वह शब्द का कथंचिद् अभिन्न धर्म ही है । एवं वाच्यत्व भी अर्थ का संकेतावलम्बी ऐसा अभिन्न धर्म ही है, और जब शब्द और अर्थ का मिलित प्रतिभास होता है उस वक्त क्षयोपशमविशेष (आत्मसामर्थ्यविशेष) के प्रभाव से आविर्भूत किसी एक ज्ञान में वाचकत्व-वाच्यत्व ये दोनों प्रतिभासित भी होते हैं । देखिये - संकेतक्रिया काल में 'यह इस से वाच्य है' अथवा 'यह इस का वाचक है' इस प्रकार के उल्लेख के साथ, वाच्यत्व-वाचकत्व उभय ग्राहक, 'शब्दसहकृत इन्द्रियादि विशिष्ट सामग्री' से निपजने वाले ज्ञान का सभी को अनुभव होता है ।
- 'यह इस का वाचक है ऐसे उल्लेख में वाचक यानी क्या ? प्रतिपादक अथवा कार्य अथवा कारण ? - ऐसे तीन विकल्पों का उद्भावन जो पहले किया गया था [१४४-२४] उस की कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वाचकत्व का सर्वत्र प्रतिपादकत्व अर्थ ही प्रदर्शित किया जाता है । पहले जो कहा था [१४४-२६] 'शब्द से अर्थ का प्रतिपादन मानने पर भी वर्तमान में या कालान्तर में, इन्द्रियजन्य ज्ञान में ही वस्तु विशदाकार भासित होती है, शाब्दबोध में नहीं होती क्योंकि विशदाकार वस्तुप्रतिभास के लिये शब्द में सामर्थ्य नहीं दिखता ।' यह भी गलत है क्योंकि 'इन्द्रियजन्य ज्ञान विशद ही होता है। इस बात का निषेध करते हुए पहले हमने इस का उत्तर [२४५-१६/१७]दे दिया है, जैसे: दूरवर्ती वृक्षादि अर्थ का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष अविशदाकार होते हुए भी प्रमाण ही माना जाता है इसी तरह अविशदप्रतिभास कराने वाला शाब्दबोध भी प्रमात्मक होने से उस के जनक शब्द में प्रमाजननसामर्थ्य सिद्ध होता है ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org