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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २५७ स्वाभिप्रायप्रतिपादनाऽविसंवादनात् ! न चायमेकान्तः 'शब्दैर्बहिरा न प्रतिपाद्यन्ते', तद्व्यवहारोच्छित्तिप्रसक्तेः । दृश्यन्ते च स्वयमदृष्टेषु नदी-देशपर्वत-द्वीपादिप्वाप्तप्रणीतत्वेन निश्चितात् तच्छब्दात् त. स्त्वप्रतिपत्तिं कुर्वाणाः । न च दृष्टेष्वपि विशेषेषु सम्प्रदायमन्तरेण मणि-मन्त्रौषधादिषु बहुलं तत्त्वनिर्जी(णी)तिः । न च तद्विशेषाऽविनिश्चयेऽपि कथंचिनिीतिर्नोपपद्यते, प्रत्यक्षस्यापि स्वविषयप्रतिपत्तेः कश्चिदेव सम्भवात् । तत् 'असाधारणं वस्तुस्वरूपमविकल्पविषयभूतं परमार्थसत्, विकल्पानां प्रत्यक्षपृष्ठभाविनाम् वाच्यविषयाणामन्येषां च सर्वथा निर्विषयत्वं' व्यवस्थापयन्नविकल्प एव सौगतः ।। ____यतः प्रत्यक्षं स्वलक्षणं विषयलक्षणं वा तत्त्वं न निश्चिनोति, विकल्पकं पुनः साकल्येनाऽवस्त्वेव निश्विनोतीति निश्चयक्रियाप्रतिषेधान किंचित् केनचिनिधेयम्, अनिश्चितेन च स्वरूपेण न तत्त्वव्यवस्थेति प्रत्यक्षवच्छाब्दस्याप्युभयात्मकवस्तुनिश्वायकत्वेन प्रामाण्यमभ्युपेयम् । न च प्रत्यक्षे पुरोव्यवस्थितं घटादिकं चक्षुर्जन्ये श्रोत्रप्रभवे शब्दस्वरूपं च प्रतिभाति नापरो वाच्य-वाचकभावस्तयोरिति वक्तुं युक्तम् यतो नास्माभिरेकान्ततस्तयोभिन्नो वाच्यवाचकभावोऽभ्युपगम्यते - येन तस्य पृथक् प्रतिभासः स्यात् - किन्तु संकेतसव्यपेक्षस्य शब्दस्य वाचकत्वं कथंचिदभिन्नो धर्मः तदपेक्षया चार्थस्यापि वाच्यत्वं तथाभूत एव से तो वह होती नहीं । उपरांत, ज्ञातव्य है कि अपोहवादी जो कहता है कि शब्द या विकल्पों से अभावप्रतीति होती है - यहाँ प्रसज्यप्रतिषेध होने पर क्रियाप्रतिषेध होने से यह मतलब होगा की भावप्रतीति नहीं होती यानी कुछ भी प्रतीत नहीं होता, जो कतई ठीक नहीं । यदि वक्ता के अभिप्राय के अविसंवाद के आधार पर सत्यत्व की व्यवस्था करना हो तो 'एक शास्त्र सच्चा है, दूसरा जूठा' यह व्यवस्था कैसे हो पायेगी ? विपक्षवादीयों का प्रतिपादन भी अपने अपने अभिप्राय से तो अविसंवादी ही होते हैं। ऐसा एकान्तवाद भी नहीं है कि 'शब्द बाह्यार्थ का प्रतिपादक नहीं होता'। ऐसा एकान्त मानने पर पूरा बाह्यार्थसम्बन्धी व्यवहार उच्छिन्न हो जायेगा । अरे, बहुत से ऐसे नदी-देश-पर्वत-द्वीपादि स्थान हैं जिन को हमने कभी नजरों से नहीं देखा फिर भी भूगोलशास्त्र के विश्वस्त प्रणेताओं के प्रमाणित ग्रन्थों के द्वारा उन नदी पर्वत आदि स्थानों के बारे में यथार्थमाहिती प्राप्त करते हुए बहुत से लोग दिखाई देते हैं । शब्द यदि बाह्यार्थ का प्रतिपादक नहीं है तो यह कैसे होगा ?! नहीं देखी ऐसी चीजों की क्या बात, देखे हुए विशिष्ट मणि-मन्त्र-औषधादि के प्रभावतत्त्व का निर्णयात्मक ज्ञान भी हमें आप्तपरम्परा से ही प्राप्य होता है । 'शब्द से वस्तु के विशेषस्वरूप का भान नहीं होता' इतने मात्र से यह नहीं कह सकते कि कुछ भी (सामान्यस्वरूप का भी) भान नहीं होता, प्रत्यक्ष से भी वस्तु के सकल विशेष का यानी सम्पूर्णभान नहीं होता, कुछ ही विशेषों का भान होता है। सारांश, “विकल्प का जो विषय ही नहीं है ऐसा असाधारण वस्तुस्वरूप ही परमार्थ सत् है, प्रत्यक्षोत्तरकालभावि विकल्प एवं वाच्यग्राही शब्दविकल्प सर्वथा निर्विषय ही होता है। ऐसी व्यवस्था दिखानेवाला बौद्धवादी स्वयं ही निर्विकल्प यानी विचारशून्य जड है । ★ शब्दप्रमाण माने विना तत्त्वव्यवस्था दुर्लभ ★ क्यों वह विचारशून्य है इस का उत्तर यह है कि उस के मत में स्वलक्षण अथवा विषयस्वरूप के तत्त्व का निश्चय प्रत्यक्ष (दर्शन) से नहीं होता, दूसरी ओर विकल्पज्ञान तो सर्वथा अवस्तु को ही निश्चित करता है, इस प्रकार दो में से किसी भी एक से तत्त्व की निश्चयक्रिया जन्म नहीं पा सकती । इस का मतलब, www.jainelibrary.org Jain Educationa International For Personal and Private Use Only
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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