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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् थाभूतस्याप्यारोप्यत इति कृत्वा, यतो 'यत्र व्याप्तिग्रहणं न तत्र तात्त्विकः प्रतिबन्धः यत्र त्वसौ न तत्र प्रतिबन्धग्रहणम्', इत्यनुमानप्रवृत्तिमभ्युपगच्छता प्रत्यक्षविषयत्वं तस्याऽभ्युपगन्तव्यम् । अनुमानतुल्यविषयत्वं च शाब्दप्रत्ययस्य परेणाप्यभ्युपगम्यत एव, तस्य परार्थानुमानत्वाभ्युपगमात् । यदि पुनर्विकल्पप्रतिभासिन्यवस्तुनि संकेतः पुनश्च तत्र प्रतिपत्तिः कथं वस्तु-तत्सामान्यसंकेतादस्य विशेषः स्यात् ? विकल्पानामभावविषयत्वैकान्ते तत्त्वमिथ्यात्वव्यवस्थितेरनुपपत्तिश्च । अपि च शब्दैर्विकल्पैर्वा यद्यभावः प्रतीयते – 'भावो न प्रतीयते' - इति क्रियाप्रतिषेधान किंचित् कृतं स्यात् । यदि पुनरभिप्रायाऽविसंवादात् सत्यार्थत्वव्यवस्थितिः, कथं 'एकं शास्त्रं युक्तं नाऽपरम्' इति व्यवस्था युज्येत विपक्षवादिनामपि दो ही प्रमाण मानने वाले बौद्ध को व्याप्तिग्राहक सविकल्प प्रत्यक्ष प्रमाणभूत स्वीकारना ही होगा।
इस प्रकार, व्यक्ति अनंत होने पर भी जैसे व्याप्ति संबंध की प्रत्यक्ष से सिद्धि होती है वैसे ही प्रत्यक्ष से उन व्यक्तियों में संकेतविषयता भी सिद्ध हो सकती है ।
* प्रत्यक्ष में सम्बन्धग्राहकता अवश्यमान्य ★ व्याप्ति सम्बन्ध और संकेतविषयता की सिद्धि प्रत्यक्ष से सम्भवित है इसी लिये अनुमान और शाब्दबोध में व्याप्तिग्राहक और संकेतग्राहक प्रत्यक्ष की समानविषयता भी उपपन्न होती है, भले सामग्रीभेद से उन में स्वरूपभेद रहता हो । समानविषयता के ऊपर ही सम्बन्धग्रह अवलम्बित है, यदि समानविषयता नहीं मानेंगे तो प्रत्यक्ष से सम्बन्धग्रह नहीं होगा, और तो कोई सम्बन्ध ग्राहक बौद्धमत में घटता नहीं है, फलत: सम्बन्धग्रहण के अभाव में अनुमान और शाब्दबोध भी रुक जायेगा। अभी जो ऊपर बौद्ध ने कहा था कि विद
था कि विकल्प से सम्बन्धग्रहण होगा, वहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जब आप विकल्प को मिथ्याज्ञान मानते हैं तो उस का विषय वस्तुभूत न होने से एक दुसरे के साथ कार्यकारण भाव या तादात्म्य ही नहीं सिद्ध होगा तो कार्यहेतुक या स्वभावहेतुक अनुमान के लिये सम्बन्धग्रहण कैसे होगा ? ऐसा नहीं कह सकते कि - "विकल्प के दो विषय (कार्य और कारण आदि) दर्शन के भी विषय रूप में मान्य है इस लिये उन में कार्यकारणभाव या तादात्म्य की संगति बैठ जायेगी' - क्योंकि आप के मतानुसार वस्तुदर्शन के बल से उत्पन्न विकल्प के द्वारा प्रदर्शित जो विकल्प के विषय हैं उन में वास्तव में तद्रूपता (कार्यकारणभावादि) के न होने पर भी तद्रूपता का आरोप हो सकता है। यह भी इस लिये कि विकल्प के विषयभूत अर्थ में यद्यपि व्याप्तिग्रहण होता है किन्तु वास्तव में वहाँ व्याप्ति होती नहीं है, व्याप्ति तो वास्तव में दर्शन के विषय में होती है किन्तु वहाँ व्याप्तिग्रह नहीं होता । इस संकट को टालने के लिये एवं अनुमानप्रवृत्ति को संगत करने के लिये प्रत्यक्ष में सम्बन्धविषयता का स्वीकार अनिच्छया भी करना होगा।
शाब्दबोध में अनुमानसमान विषयता तो बौद्ध को मान्य होनी ही चाहिये क्योंकि वह शाब्दबोध को अतिरिक्त प्रमाण न मान कर परार्थानुमानरूप मानना है । दूसरी बात यह है कि यदि बौद्ध विकल्पभासित अवस्तु में संकेत और कालान्तर में उसी अवस्तु का बोध मानता है तो अन्य लोग जो कि वस्तु अथवा वस्तुगत सामान्य में संकेत एवं कालान्तर में उस का बोध मानते हैं उन से क्या फर्क हुआ ! जो दोषारोपण वस्तुवादी के पक्ष में किया जायेगा वही अपोवादी के पक्ष में भी प्रसक्त हो सकेगा । तथा, विकल्प को यदि एकान्तत: अभावविषयक ही मानेंगे तो फिर 'यह यथार्थ है - यह मिथ्या है' यह व्यवस्था भी शक्य नहीं होगी क्योंकि दर्शन
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