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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रत्यविशिष्टत्वात्' इति न वक्तुं युक्तम् नियतसंकेतसहकृतस्य शब्दस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशिष्टत्वाऽसिद्धेः । कार्यगम्यं हि वस्तूनां नियतत्वमन्यद् वा, यदा च नियतं तत्कार्यमुपलभ्यते तदा तस्य नियतत्वं व्यवस्थाप्यते, यदा चान्यथा तदाऽन्यथात्वमिति । 'कुतः पुनरेतत् स्वरूपं शब्दादेः' इति पर्यनुयोगे 'स्वहेतुप्रतिनियमः' इत्युत्तरं न्यायविदः सर्वत्र युक्तियुक्तम् दृष्टानुमितानां नियोग - प्रतिषेधानुपपत्तेः । 'प्रतिपत्तिधर्मस्तु नियमहेतुः काल्पनिक एव स्यात्' इति - एतदप्ययुक्तम्, अबाधिताकारप्रतिपत्तेस्त्वबाधितप्रतिपत्तित्वं साधितमेव । बाधितत्वे वा तत्प्रतिपत्तेस्तत्प्रभवशाब्दज्ञानस्या:प्रामाण्यप्रसक्तिर्विपरीतप्रतिबन्धग्राहिज्ञानप्रभवानुमानाभासस्यै(स्ये)व । तत् सौगतदर्शनमेव ध्यान्ध्यविजृम्भितम् ।
यदपि 'शब्देभ्यः कल्पना बहिराऽसंस्पर्शिन्यः प्रसूयन्ते, ताभ्यश्च शब्दाः' इति तदप्यचारु, शब्दजनितविकल्पानां बहिराऽसंस्पर्शित्वासिद्धेः, इन्द्रियजज्ञानस्येव तासां तत्प्राप्तिहेतुत्वादिति प्रतिपादिएक ही शब्द का आर्य और द्रविडों में भिन्न अर्थ होता है' - अपने अपने देश-काल में नियत शब्द का नियत संकेत के अनुसार नियतप्रकार का अर्थबोध होने का सर्वत्र दिखाई देता है । इस लिये यह जो आपने कहा था [१४७-९]- 'शब्द का स्वरूप सभी अर्थों के लिये एकरूप होने से नियत अर्थबोध का हेतु, शब्द नहीं हो सकता'- यह भी कहने जैसा अब नहीं रहा, क्योंकि नियतसंकेत विशिष्ट शब्द सर्व अर्थबोध के प्रति साधारण नहीं होता किन्तु नियत अर्थबोध का ही जनक होता है । अमुक पदार्थ अमुक वस्तु के साथ नियत है या अनियत है यह सर्वथा अगम्य नहीं है किन्तु कार्यगम्य है, किसी एक पदार्थ का जब नियत कार्य दिखाई देता है तब उसके साथ उसका नियतत्व सुनिश्चित हो जाता है, जब उसके नियतरूप में कोई कार्य उपलब्ध नहीं होता तब यह निश्चित होता है कि वह उसका नियत नहीं है। यदि यह प्रश्न किया जाय कि शब्दादि का ऐसा स्वरूप क्यों, कि वह नियत संकेतानुसार नियतार्थ को बोधित करता है ?- तो इसका युक्तियुक्त उत्तर यही है- सर्वत्र अपने हेतुओं से ही वह तथास्वभाव से नियत होता है, यह उत्तर सर्वन्यायवेत्ताओं को मान्य है, क्योंकि प्रत्यक्ष एवं अनुमान से सिद्ध हुए नियमों के ऊपर 'ननु-नच' को अवकाश ही नहीं होता । पहले 'प्रकरणादि शब्दधर्म-अर्थधर्म या प्रतिपत्तिधर्म हैं ?' ऐसा प्रश्न उठा कर जो यह कहा था [१४७-१५] 'नियामकहेतु के रूप में अभिमत प्रकरणादि को यदि प्रतिपत्ति का धर्म मानेंगे तो वह तात्त्विक नहीं किन्तु काल्पनिक ही होगा'- वह भी अयुक्त है क्योंकि अबाधित रूप में होनेवाली शब्दार्थसम्बन्ध प्रतीति के द्वारा वह नियतार्थबोध का नियम तात्त्विक अर्थधर्म होने का सिद्ध होता है । 'शब्दार्थसम्बन्ध की ग्राहक प्रतीति अबाधितप्रतीति है' यह तो अब सिद्ध किया जा चुका है। कदाचित् वह प्रतीति बाधित होगी तो उससे जन्य शाब्दज्ञान को भी हम अप्रमाण ही घोषित करेंगे, जैसे कि विपरीतव्याप्तिग्राहकज्ञान से उत्पन्न अनुमानाभास मिथ्या (अप्रामाणिक) होता है । इस प्रकार शब्दप्रमाणवादी के पक्ष में पूर्ण संगति = विचारक्षमता होने पर भी जो बौद्धने पहले यह कहा है [१४७-१८] 'विचाराक्षम न होने से सभी अन्यदर्शन अन्धबुद्धिविलासतुल्य है' - इस कथन में स्वयं बौद्ध की ही अन्धबुद्धिविलासिता प्रदर्शित होती है ।
★ शब्दजन्यज्ञान बाह्यार्थस्पर्शि* यह जो पहले कहा था [१४७-२१]- 'शब्दों से बाह्यार्थस्पर्शशून्य कोरी कल्पना ही जन्म लेती है और शब्द भी ऐसी कल्पनाओं की ही निपज हैं'- यह कथन सुंदर नहीं, क्योंकि हम यह दिखा चुके हैं कि शब्दजन्य
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